अस्सलामु अलैकुम दोस्तों आप इस तहरीर में जान पाएँगे कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत की सही तारीख़ क्या है, और क्यों जमहूर उलमा और पूरी उम्मत 12 रबीउल अव्वल को ही जश्ने मीलाद मनाती है। साथ ही हम पढ़ेंगे कि रबीउल अव्वल के मौके पर मस्जिदों, घरों, मोहल्लों और रास्तों को सजाना और चराग़ाँ करना शरीअत की रोशनी में कैसा है।
इसी के साथ यह भी जानेंगे कि सहाबा-ए-किराम और बाद के सलफ़-ओ-ख़लफ़ ने किस तरह नेमतों पर खुशी का इज़हार किया, और आज हम किस अंदाज़ में मीलाद मना सकते हैं। और इस तहरीर में आप यह भी पढ़ेंगे कि ढोल-बाजा बजाना, आतिशबाज़ी करना और बेपर्दगी जैसी चीज़ों का क्या हुक्म है।
तो आइए सबसे पहले पढ़ते हैं और जानते हैं के हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत मुबारक की तारीख़।
फ़तावा रज़वियह में तारीख़ विलादत 8 रबीउल अव्वल?
आ'ला हज़रत इमाम एहले सुन्नत अश्शाह इमाम अहमद रज़ा ख़ान की तहक़ीक़ यही है कि मीलादे मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बारह (12) रबीउल अव्वल को मनाया जाए। आप फतावा रज़वियह में (विलादत की तारीख़ के बारे में मुख़्तलिफ़ अक़वाल ज़िक्र करते हुए फ़र्माते हैं कि विलादत की तारीख़ के बारे में अक़वाल बहुत मुख़्तलिफ़ हैं दो, आठ, दस, बारह, सत्रह, अठारह, बाईस, (7) सात अक़वाल हैं, मगर अशहर व अक्सर व माख़ूज़ व मुअतबर बारहवीं है। मक्का मुअज़्ज़मा में हमेशा उसी तारीख़ को मकान मौलिद अक़्दस की ज़ियारत करते हैं। कमा फिल मवाहिब वल मदारिज (जैसा कि मवाहिब लदुन्निया और मदारिजुन नबुव्वह में है) और ख़ास उस मकान जन्नत नुमा में उसी तारीख़ में मजलिसे मीलादे मुक़द्दस होती है...शरए मुतह्हर में मशहूर बैनल जमहूर होने के लिए वक़अते अज़ीम है (यानी जो मौक़िफ़ अक्सर उलमा का हो वह ख़ुद एक बहुत बड़ी दलील होती है) और मशहूर इंदल जमहूर 12 रबीउल अव्वल है और इल्मे हैयत व ज़ीजात के हिसाब से रोज़े विलादत शरीफ 8 रबीउल अव्वल है... तआम्मुले मुस्लिमीन हरमैन शरीफ़ैन व मिस्र व शाम बिलादे इस्लाम व हिंदुस्तान में बारह ही पर है। इस पर अमल किया जाए।
इमाम एहले सुन्नत आ'ला हज़रत ने आठ रबीउल अव्वल का क़ौल सिर्फ़ नाक़िल के तौर पर ज़िक्र किया, मगर जमहूर के मुताबिक़ विलादत व जश्न की तारीख़ 12 रबीउल अव्वल ही क़रार दी और उसी की ताकीद फ़र्माई। लिहाज़ा यह कहना कि आ'ला हज़रत की मनशा के ख़िलाफ़ 12 तारीख़ को मीलाद मनाया जाता है, सरासर ग़लत और ज़्यादती है। (411/427, फतावी रज़वियह, जिल्द, 26, सफ़्हा)
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ईद मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मौक़े पर सजावट करना
ईद मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़ुशी में शरीअत के दाइरे में रहते हुए चरागां और सजावट करना जायज़ व मुस्तहसन है, क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह तआला की सब से बड़ी नेमत और रहमत हैं और क़ुरआन ने नेमतों के चर्चे और उन पर ख़ुशी करने का हुक्म दिया है। उर्फ के मुताबिक़ ख़ुशी के मौक़ों पर लाइटिंग व सजावट होती है, लिहाज़ा विलादते मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर भी यह जायज़ है। रौज़ा अतहर या काबा व गुंबदे ख़िज़रा की शबीह बतौर तबर्रुक बनाना भी दुरुस्त है। मुसलमान जिस चीज़ को अच्छा समझें, वह अल्लाह के नज़दीक भी अच्छा है। ख़ुशी के इज़हार में ख़र्च किया गया माल इसराफ नहीं कहलाता। आ'ला हज़रत अश्शाह इमाम अहमद रज़ा ख़ाँ फ़र्माते हैं, ला ख़ैरा फिल इसराफि वला इसराफा फिल ख़ैर ... यानी इसराफ में कोई भलाई नहीं और भलाई के कामों में ख़र्च करने में इसराफ नहीं।( मलफ़ूज़ाते आ'ला हज़रत, सफ़्हा 174 )
मुफ़्ती अहमद यार ख़ान नईमी "ख़ुशी का इज़हार जिस जायज़ तरीक़े से हो वह मुस्तहब्ब और बहुत ही बाइस बरकत और रहमते इलाही के नुज़ूल का सबब है। एक और मकाम पर फ़र्माते हैं, क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़र्माता है, व अम्मा बिनिअमते रब्बिका फ़हद्दिस... अपने रब की नेमतों का ख़ूब चर्चा करो और हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आमद तमाम नेमतों से बढ़ कर नेमत है कि रब तआला ने इस पर एहसान जताया है, चर्चा करना इसी आयत पर अमल है, आज किसी के फ़रज़न्द पैदा हो तो हर साल सालगिरह का जश्न करता है, तो जिस तारीख़ को सब से बड़ी नेमत मिली उस पर ख़ुशी मनाना क्यों मना होगा? जाअल हक़, सफ़्हा, 221, लाहौर मकतबा इस्लामिया )
क्या सहाबा किराम ने भी मीलाद मनाया?
किसी काम के नाजाइज़ होने का दारोमदार इस बात पर नहीं कि यह काम रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम या सहाबा किराम अलैहिमुर्रिज्वान ने नहीं किया, बल्कि मदार इस बात पर है कि इस काम से अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मन्अ फरमाया है या नहीं? अगर मन्अ फरमाया है, तो वह काम नाजाइज़ है और मन्अ नहीं फरमाया, तो जाइज़ है, क्योंकि फ़िक़्ही क़ायदा है, الْأَصْلُ فِي الْأَشْيَاءِ الْإِبَاحَة ... यानी अस्ल हर चीज़ में इबाहत है, हुरमत सिर्फ वहाँ साबित होती है जहाँ क़ुरआन-ओ-हदीस से मुमानिअत हो।क़ुरआन करीम ने नेअमत-ए-इलाही पर खुशी मनाने का हुक्म दिया, قُلْ بِفَضْلِ اللهِ وَبِرَحْمَتِهِ فَبِذَلِكَ فَلْيَفْرَحُوا .... (यूनुस, 58) وَ أَمَّا بِنِعْمَةِ رَبِّكَ فَحَدِّثُ (अज़-ज़ुहा, 11)
चूँकि महाफिल-ए-दीनीया मुनअक़िद करके ईद-ए-मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मनाने की मुमानिअत क़ुरआन-ओ-हदीस अक़वाल-ए-फुकहा नीज़ शरीअत में कहीं भी वारिद नहीं, लिहाज़ा जश्न-ए-विलादत मनाना भी जाइज़ है और सदियों से उलेमा ने इसे जाइज़ और मुस्तहसन क़रार दिया है। जैसे इमाम क़स्तलानी, शेख अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी, इमाम कतानी रहिमहुमुल्लाह वगैरह। हदीस-ए-पाक में है, مَنْ سَنَ فِي الْإِسْلَامِ سُنَّةً حَسَنَةً فَلَهُ أَجْرُهَا ... (वगैरह) (सहीह मुस्लिम, 1017) यानी जो इस्लाम में अच्छा तरीक़ा जारी करे तो उस पर उसे सवाब मिलेगा और उसके बाद जितने लोग उस पर अमल करेंगे तमाम के बराबर उस जारी करने वाले को भी सवाब मिलेगा।
जुलूस ए मीलाद में ढोल बाजे का हुक्म
जलूस-ए-मीलाद में ढोल, बैंड बाजे, आतिशबाजी और बे-पर्दगी करना, ना जाइज़ व गुनाह है, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ऐसे बे-हूदा कामों से मन्अ फरमाया है, लिहाज़ा ऐसी खुराफात से दूर रहते हुए ही जलूस-ए-मीलाद का इहतिमाम किया जाए। सबुलुल हुदा वर्रशाद में है, الصَّوابُ أَنَّهُ مِنَ البِدَاعِ الْحَسَنَةِ المَندُوبَةِ إِذَا خَلَا عنِ المُنكَرَاتِ شَرعًا ... यानी दुरुस्त बात यह है कि महफिल-ए-मीलाद बिदअत-ए-हसना, मुस्तहब्बा है जबकि मुनकरात-ए-शरईया से पाक हो। (सबुलुल हिदा वर्रशाद, जिल्द 01, सफ़्हा 367)आला हज़रत अश-शाह इमाम अहमद रज़ा खाँ से एक सवाल हुआ कि मीलाद शरीफ़ में कव्वाली की तरह पढ़ना कैसा है? तो आप रहमतुल्लाह अलैह ने जवाब में फरमाया, कव्वाली की तरह पढ़ने से अगर यह मुराद कि ढोल सितार के साथ, जब तो हराम और सख़्त हराम है और अगर सिर्फ ख़ुशुल-हानी मुराद है, तो कोई अम्र मूरिस-ए-फितना न हो, तो जाइज़ बल्कि महमूद है और अगर बे-मज़ामीर गाने के तौर पर रागनी की रुआयत से हो, तो ना-पसन्द है कि यह अम्र ज़िक्र-ए-शरीफ के मुनासिब नहीं। वाल्लाहु तआला आ'लम।
(फतावा रज़विया, जिल्द 24, सफ़्हा 140)
इख्तितामी कलमात
अल्हम्दुलिल्लाह! हमने इस तहरीर में जाना कि हुज़ूर सरवर-ए-कायनात सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत की तारीख़ पर मुख़्तलिफ़ अक़वाल मौजूद हैं, मगर जमहूर और मशहूर क़ौल 12 रबीउल अव्वल का है, जिस पर पूरी उम्मत का अमल और इत्तिफ़ाक़ है। यही वजह है कि आला हज़रत इमामे अहले सुन्नत रहमतुल्लाह अलैह ने भी इसी तारीख़ को मीलाद मनाने की तौसीयत फरमाई।ईद-ए-मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम असल में अल्लाह तआला की सबसे बड़ी नेमत पर शुक्र अदा करना और मोहब्बते-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इज़हार करना है। सजावट, चराग़ाँ, महफ़िल-ए-मीलाद और जुलूस—सब जायज़ और मुस्तहसन हैं बशर्ते कि उनमें कोई मुनकरात न हों। ढोल-बाजा, आतिशबाज़ी और बेपर्दगी जैसी हरकतें यह सब गुनाह के काम हैं, लिहाज़ा इनसे बचना लाज़िमी है।
हम सबको चाहिए कि इस मुबारक दिन को इबादत, दरूद-ओ-सलाम, तिलावत, नात-ख़्वानी और इल्मी व रूहानी महफ़िलों से सजाएँ, ताकि अल्लाह तआला की रहमतें बरसें और हमारी ज़िंदगी सीरतुन-नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नूर से रोशन हो। अल्लाह तआला हम सबको सच्ची मोहब्बत-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अता फरमाए। आमीन या रब्बल आलमीन।