अहमियत ए निकाह
अल्लाह पाक ने मर्द व औरत में अफ़ज़ाईशे नस्ल (नस्ल बढ़ाने)
के लिये जो शहवानी कुव्वत अता फ़रमाई है। उस को बजा तौर पर इस्तेमाल करने के लिये मज़हबे इस्लाम ने अपने मानने वालों को निकाह जैसी अज़ीम नेअमत अता फ़रमाई है। अल्लाह पाक इरशाद फ़रमाता है-तो निकाह में लाओं जो औरतें तुम्हें खुश आयें दो-दो और तीन- तीन और चार-चार, फिर अगर डरो के दो बीवीयों-को-बराबर न-रख सकोगे-तो एक ही करो।
(सूरह निसा आयत नं. ३)
निकाह एक ऐसी इबादत है जिस की इब्तेदा हज़रते आदम अलैहिस्सलाम से हुई और क़यामत तक रहेगी। निकाह ही से नस्ले इंसानी की बक़ा है, येही सालेहीन, आबेदीन, ज़ाकेरीन (अल्लाह के महबूब बंदो) की पैदाईश का ज़रीआ है, यही वजह है। के हनफ़ियों के नज़दीक़ निकाह करना नफ़्ल इबादत से बेहतर है।
निकाह करना अंबिया-ए- किराम अलैहीमुस्सलाम और खुसूसन हमारे आका अलैहिस्सलाम की सुन्नते मुबारका है लेहाज़ा बिला वजहे शरई निकाह से एराज़ करना (इंकार करना) अहले ईमान का तरीक़ा नही है।
आक़ा अलैहिस्सलातु-वस्सलाम फ़रमाते हैं:
निकाह मेरा तरीका है, तो जिसने मेरे तरीके पर अमल ना किया वो
मुझ से नहीं। (इब्ने माजा)
निकाह करने का फ़िक्ही हुक्म
बाज़ सूरतों में निकाह करना फ़र्ज़ और बाज़ सूरतों मे वाजिब होता है। मसलन जो आदमी मेहर और औरत का खर्च उठाने की ताक़त रखता है और उसे यकीन है के निकाह ना करने की सूरत मे उस से गुनाह वाके हो जायेगा तो उस पर निकाह करना फर्ज़ है। इसी तरह जो महर और खर्च देने पर क़ादिर है और उसे शहवत का इतना गलबा हो के निकाह ना करने की सूरत मे गुनाह का अंदेशा हो तो उस पर निकाह करना वाजिब है और अगर ऐतदाल की हालत हो तो निकाह करना सुन्नते मुअक्केदा है इसी तरह जिस आदमी को ये यक़ीन हो के अगर निकाह करेगा तो खर्च ना दे पायेगा और ज़रुरी हुकूक़ अदा ना कर पाएगा तो ऐसी हालत मे निकाह करना हराम है और जिन को इन बातों का अंदेशा हो उनके लिए निकाह करना मकरूह है।
(मुलख्खसन अज़ फतावा रज़्विया)
निकाह के फ़वाइद व फज़ाइल
१. निकाह अंबिया ए किराम की सुन्नते मुबारका है। हदीसे पाक में है के आक़ा अलैहिस्सलातु-वस्सलाम फ़रमाते हैं, चार चीजें अंबिया अलैहीमुस्सलाम की सुन्नत है, खुशबू लगाना, हया करना, निकाह करना और मिस्वाक करना।
(मुस्नदे इमाम अहमद)
२. निकाह गुनाहों से हिफ़ाज़त का ज़रीआ है। आक़ा अलैहिस्सलातु-वस्सलाम फ़रमाते हैं ऐ जवानों तुम मे से जो ताक़त रखे वो ज़रूर निकाह करे, क्योंकि निकाह निगाह को ज़्यादा झुकाने वाला और सतरे औरत की हिफ़ाज़त करने वाला है और जो निकाह की ताकत ना रखे वो रोज़ा रखे के रोज़ा शहवत को खत्म करता है। (बुखारी शरीफ)
बहोत से वो लोग जो निकाह की ज़रूरत के वक़्त ताक़त के बावजूद निकाह नही करते उन का ज़हन गंदगियों की जानिब लगा रहता है और ये गंदगीयाँ इंसान को धीरे धीरे ईमान से दूर कर देती हैं इन तमाम गुनाहों से नजात का जो तरीक़ा आक़ा अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने बयान फ़रमाया है वो निकाह है हाँ अगर वाकई मे मजबूरी है और निकाह की ताक़त नही रखता है तो फिर उस का इलाज वह है जो आक़ा अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने बयान फ़रमाया के वो रोज़ा रखे क्युंकि रोज़े से नफ़सानी ख्वाहिशात टूटती है।
३. आक़ा अलैहिस्सलातु-वस्सलाम फ़रमाते हैं, दुनिया की तमाम चीज़ें फ़ायदा उठाने के लिए है और दुनिया की बेहतरीन फ़ायद उठाने वाली चीज़ नेक औरत है।
(मुस्लिम शरीफ)
४. औलाद का हुसूल निकाह के ज़रीए होता है और औलाद वालेदैन के लिये दुआ और बख्शिश का ज़रिआ है, यही वजह है के आक़ा अलैहिस्सलातु-वस्सलाम फ़रमाते है के जब इंसान मर जाता है तो उस के आमाल का सिलसिला मुन्क़ता हो जाता है सिवाए तीन कामों के, के उन का सिलसिला जारी रहता है सदक़ ए जारीया, वो इल्म जिस से फ़ायदा उठाया जाए और नैक ओलाद जो उस के हक़ मे दुआ करे।
(मुस्लिम शरीफ)
एक और मक़ाम पर फ़रमाते हैं के जन्नत मे आदमी का दरजा बढ़ा दिया जाता है तो वो कहता है मेरे हक़ मे ये किस तरह हुआ जवाब मिलता है के इसलिये के तुम्हारा बेटा तुम्हारे लिये मग्फ़िरत तलब
करता है! (इब्ने माजा)
औलाद वालेदैन के लिये बलंदी दर्बजात और ख्शीश का ज़रीआ है। सुब्हानअल्लाह
५. निकाह का एक फ़ायदा ये भी है के निकाह के सबब आदमी को अपनी बीवी से मोहब्बत होती है जिस से दिल को राहत पहुँचती है, और उस राहत के ज़रीए इबादत का शौक ताज़ा हो जाता है क्योंकि हमेशा इबादत करने से उदासी का खतरा होता है।
यही वजह है के हज़रते अली रदी अल्लाहो तआला अन्हो फ़रमाते हैं के "दिल से राहत और आराम एक दम ना छीन लो, क्योंकि उस से दिल नाबीना हो जायेगा
(कीमाए सआदत)
मोहतरम कारईन हज़रात- मुन्दरजा बाला (ऊपर लिखी)
अहादीस और तहरीरात से आप इस बात का अंदाज़ा लगा चुके होंगे के इस्लाम में निकाह को गैर मामूली अहमीयत दी गयी है साथ ही उस के दीनी और दुनियावी फ़ायदे भी बहुत हैं, मगर अफ़सोस के हमारे मुआशरे में निकाह के सिलसिले में इस तरह बेजा रस्मों की पाबंदीया की जाती हैं के बसा औक़ात निकाह को ही मुश्किल बना दिया जाता है!
दोस्तों ये बात याद रखें के शरीअत- ए-इस्लामिया बिल्कुल ही तमाम रस्मों को खत्म करने का हुक्म नही देती बल्कि हमारी शरीअत ये हुक्म देती है के जहाँ रस्में अहकाम-ए-शरअ के खिलाफ़ ना हों वहाँ रस्मों पर अमल करने मे कोई हर्ज नही है। हॉ शरअ के ख़िलाफ़ जा कर रस्मों की पाबंदीया, ये ज़रूर ख़िलाफ़-ए- शरअ काम हैं।
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