बाज़ अवक़ात इंसान से जाने या अनजाने में दूसरों की हक़ तलफ़ी हो जाती है, ऐसी सूरत में दीन सिखाता है कि जिस की हक़ तलफ़ी होती है उसे उस का हक़ अदा कर दिया जाए या उस से मुअफ़ी मांग ली जाए ताकि क़यामत के रोज़ मुश्किल का सामना न करना पड़े।
दुनिया में मज़लूम से मुअफ़ी मांग लेना आसान भी है अल्लाह तआला को पसंद भी और ऐसा करने वाले के लिए जाने रहमत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रहमत की दुआ भी फरमाई है।
माफ़ी मांगने वालों के लिए दुआ
सैय्यिदना अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया। अल्लाह तआला उस शख़्स पर रहम फरमाए जिस से अपने मुसलमान भाई पर इज़्ज़त या माल के सिलसिले में ज़ुल्म हो गया (हक़ तलफ़ी हो गई) तो वह उस के पास आकर मुआफ़ करा ले वह दिन (क़यामत) आने से पहले जब उस का मुआखज़ा हो और वहां न दीनार होंगे न दिरहम अगर ज़ालिम के पास नेकियां होंगी तो उस से ज़ुल्म के मुताबिक़ छीन ली जाएंगी (और मज़लूम को दे दी जाएंगी) और अगर उस के पास नेकियां न हुईं तो मज़लूम के गुनाह ज़ालिम पर डाल दिए जाएंगे। (जामे तिरमिज़ी हदीस: 2419 व रवाहुत तबरानी अन अनस)
हुकूक उल इबाद की अहमियत
इस हदीस ए पाक में दुआ से नवाज़ने के साथ तरबियत फरमाई गई है कि बंदों के हुकूक को मामूली न समझना हुकूकुल्लाह की तअज़ीम अगरचे ज़्यादा है मगर बंदों के हुकूक का मामला उन से मुश्किल और अहम है। अल्लाह तआला के हुकूक का मामला उस के सुपुर्द है, जिस शख़्स ने तौबा नहीं की अल्लाह तआला चाहे तो उसे मुअफ़ फरमाए और चाहे तो सज़ा दे जब कि बंदों के हुकूक का मामला सख्त है रब्ब तआला ने कमाल ए इंसाफ़ से यह ज़ाब्ता मुकर्रर फरमाया है कि बंदों की हक़ तलफ़ी हो तो जब तक हक़ वाला मुआफ़ नहीं करेगा तब तक मुआफ़ी नहीं होगी।
हमारी हालत ए ज़ार
अल्लाह तआला और उस के हबीब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हुक्म फरमाया है कि मुसलमान की मामूली हक़ तलफ़ी भी न की जाए और कभी ऐसा हो जाए तो हक़ वाले से मुआफ़ी मांग ली जाए। हमारी हालत यह है कि दूसरों की हक़ तलफ़ी को कोई बड़ी बात ही नहीं समझते अपने ज़ाती सियासी और पार्टी मफ़ाद की ख़ातिर दूसरों की इज़्ज़त उछालना उन पर इल्ज़ाम-तराशी करना उन की किरदार-कुशी करना मामूल बन चुका है हत्ता कि ऐसे लोग अपने मफ़ाद के लिए दूसरों की जान की परवाह भी नहीं करते। हमें याद रखना चाहिए कि दूसरों की छोटी बड़ी हक़ तलफ़ियों का जवाब देना पड़ेगा।
