दोस्तों, क्या आपने कभी सोचा है कि अल्लाह का ज़िक्र करने वाले और उससे ग़ाफ़िल रहने वाले में असल फ़र्क क्या है? क्या यह सिर्फ़ एक अमल का फ़र्क है या कोई गहरी हकीकत छुपी हुई है?
इस्लाम हमें बताता है कि ज़िक्र-ए-इलाही सिर्फ़ एक रस्म नहीं, बल्कि दिल की ज़िंदगी है। नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक पाक हदीस में दोनों की मिसाल ऐसे दी है कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
एक तरफ़ वो लोग जिनकी ज़बानें अपने रब के नाम से तर रहती हैं, जिनके दिल में आख़िरत की याद है। दूसरी तरफ़ वो जो इस याद से बेख़बर, अपनी दुनिया में मगन हैं। क्या ये दोनों एक जैसे हो सकते हैं?
हरगिज़ नहीं!
इस ब्लॉग पोस्ट में हम आपके सामने पेश करने जा रहे हैं वो हदीसें जिसमें फरमाया गया है कि:
ज़िक्र करने वाला ज़िंदा है और ज़िक्र न करने वाला मुर्दा।
जिस घर में अल्लाह का ज़िक्र हो, वह शानदार महल है, और जहाँ ज़िक्र न हो, वह क़ब्रिस्तान।
अल्लाह के महबूब और नाराज़ बंदे की पहचान क्या है?
तो आइए, इस ज़रूरी मज़मून को ग़ौर से पढ़ें और जानें जो ज़िक्र करते हैं और जो ज़िक्र नहीं करते हैं उनके बारे में हदीस-ए-पाक में क्या आया है।
ज़िक्र करने और नहीं करने वाले की मिसाल
हज़रत अबू मूसा अशअरी रज़ी अल्लाह तआला अन्हु बयान करते हैं कि नबी करीम रौफ़ व रहीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि व आलहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया:
مثل الذي يذكر ربه والذي لا يذكر مثل الحي و الميت
(बुख़ारी जिल्द 2 सफ़्ह 948)
तर्जुमा: जो शख़्स अपने रब का ज़िक्र करता है और जो ज़िक्र नहीं करता उनकी मिसाल ज़िंदा और मुर्दा की तरह है।
इस हदीस पाक से मालूम हुआ कि ज़िक्र करने वाला अल्लाह को याद करने वाला ज़िंदा होता है और जो ज़िक्र ए इलाही से ग़ाफ़िल हो जाता है तो अगरचे वह ज़िंदा होता है मगर वह हक़ीकत में लुत्फ़े ज़िंदगी से महरूम होता है।
उसी तरह जिस घर में अल्लाह तआला का ज़िक्र होता है, रब के ज़िक्र की महफ़िलें मुनअक़िद होती हैं, उस घर में रहमते ख़ुदावंदी का नुज़ूल होता है और जिस घर में रब का ज़िक्र न हो तो वह घर क़ब्रिस्तान होता है। चुनांचे रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:
مثل البيت الذي يذكر الله فيه والبيت الذى لا يذكر الله فيه مثل الحي والميت
(मुस्लिम जिल्द 1 सफ़्ह 265)
यानी जिस घर में अल्लाह का ज़िक्र किया जाए और जिस घर में अल्लाह का ज़िक्र न किया जाए उनकी मिसाल ज़िंदा और मुर्दा की तरह है।
हकीमुल उम्मत मुफ़्ती अहमद यार ख़ान नईमी अशरफ़ी अलैहिर्रहमा वर्रिदवान मिरात शरहे मिश्कात में फरमाते हैं:
यानी जिस तरह ज़िंदा का जिस्म रूह से आबाद है, मुर्दा का ग़ैर आबाद, ऐसे ही ज़ाकिर का दिल ज़िक्र से आबाद है, ग़ाफ़िल का वीरान।
या जैसे शहरों की आबादी ज़िंदों से है, मुर्दों से नहीं, ऐसे ही आख़िरत की आबादी ज़ाकिरीन से है, ग़ाफ़िलीन से नहीं।
या जैसे ज़िंदा दूसरों को नफ़ा नुक़सान पहुँचा सकता है, मुर्दा नहीं, ऐसे अल्लाह के ज़ाकिर से नफ़ा व नुक़सान ख़ल्क हासिल करती है, ग़ाफ़िलीन से नहीं।
या जैसे मुर्दे को कोई दवा वग़ैरह मुफ़ीद नहीं, ऐसे ही ग़ाफ़िल को कोई अमल वग़ैरह मुफ़ीद नहीं, अल्लाह का ज़िक्र करो फिर दूसरे आमाल। ग़ाफ़िल मर कर भी जीता है, ग़ाफ़िल ज़िंदा रह कर भी मुर्दा है।
महबूब व मरदूद की पहचान
दोस्तों! आप ने अभी पढ़ा कि जो अल्लाह तआला का ज़िक्र करता है उसकी मिसाल ज़िंदों की तरह है और जो ज़िक्र नहीं करता उसकी मिसाल मुर्दों की तरह है, अगरचे वह ज़िंदा क्यों न हो। अब ज़रा यह वाक़िया इबरत के तौर पर पढ़ते चलिए और ग़ौर कीजिए कि जो ज़िक्र करता है उस का मक़ाम अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के नज़दीक कितना ऊँचा है और जो ज़िक्र नहीं करता उस से अल्लाह तआला किस क़दर नाराज़ होता है।
वाक़िया: एक दफ़ा हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की बारगाह में अर्ज़ किया: मौला तआला! मैं यह पहचानना चाहता हूँ कि तू किस बंदे को महबूब रखता है और किस से तू नाराज़ है। ऐ मेरे मौला! मैं कैसे पहचानूँ कि तू फलाँ बंदे से मुहब्बत रखता है और फलाँ बंदे को नापसन्द करता है?
तो अल्लाह तआला ने फरमाया: ऐ मूसा! जब मैं किसी बंदे से मुहब्बत करता हूँ तो मैं उसमें दो निशानियाँ पैदा कर देता हूँ। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अर्ज़ किया: मौला! वह निशानियाँ क्या हैं? अल्लाह तआला ने फरमाया:
الهمه ذكرى لكى اذكره في ملكوت السماوات والارض واعصمه عن محارمي وسخطى كى لا يحل عليه عذابي ونقمتي يا موسیٰ
ऐ मूसा! मेरे महबूब बंदे की निशानियाँ और अलामतें यह हैं कि मैं उसके दिल में अपने ज़िक्र की मुहब्बत डाल देता हूँ ता कि मैं आसमान व ज़मीन की बादशाहत में उसके चर्चे करा दूँ। और दूसरी निशानी यह है मैं हराम में पड़ने से उसे महफ़ूज़ कर देता हूँ, अपनी नाराज़गी से बचा लेता हूँ ता कि वह मेरे इन्तिक़ाम और अज़ाब व सज़ा की गिरफ़्त से बच जाए।
और जब मैं किसी बंदे को नापसन्द करता हूँ तो उसमें भी दो अलामतें पैदा कर देता हूँ। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अर्ज़ किया: मौला! वह दो अलामतें क्या हैं? तो अल्लाह तआला ने फरमाया:
انسيه ذكرى واخلى بينه وبين نفسه لكي يقع في محارمي بسخطى فيحل عليه عذابی و نقمتی
वह बंदा मेरा ज़िक्र करना छोड़ देता है, मेरे ज़िक्र से ग़ाफ़िल हो जाता है। उसके और उसके नफ़्स के दरमियान ऐसी राहें आ जाती हैं कि वह ख़्वाहिशात की राहों पर चल कर हरामकारी में इस तरह मुबतला हो जाता है कि मेरे अज़ाब और ग़ज़ब व इन्तिक़ाम का हक़दार व मुस्तहक़ बन जाता है।
(तनबीहुल ग़ाफ़िलीन सफ़्ह 225)
आख़िरी कलमात
दोस्तों! आज हमने सीखा कि अल्लाह का ज़िक्र हमें दुनिया और आख़िरत दोनों में ज़िंदा रखता है। आइए, हम अहद करें कि अपनी ज़बान को हमेशा अल्लाह के ज़िक्र से तर रखेंगे, तस्बीह, तहलील और तकबीर को अपनी रोज़ मर्रा ज़िंदगी का हिस्सा बनाएंगे। अल्लाह हमें अपने ज़िक्र की तौफीक दे और हमारे दिलों को ग़फलत से बचाए। आमीन!
दुआ: ऐ अल्लाह! हमें अपने ज़िक्र करने वालों में शामिल कर, हमारी ज़बानों को अपने नाम से तर रख, और हमें उन लोगों में लिख जो मुस्कुराते हुए जन्नत में दाख़िल होंगे। आमीन या रब्बल आलमीन!
