उलमा का इस्तक़बाल शोर शराबे से नहीं बलके अदब और अहतराम से करें

उलमा का अदब ईमान का हिस्सा है उलमा का इस्तक़बाल कैसे करें इस्लाम हमें कैसे इस्तक़बाल की तालीम देता है दलील के साथ पढ़िए।

आज के इस पुर फितन दौर में जहां हर तरफ ज़ाहिरी चमक दमक और दिखावे का राज है वहीं हमारी दीनि महफिलें और इज्तिमात भी इस रिया कारी से महफूज़ नहीं रहे। ख़ास तौर पर जब किसी बुज़ुर्ग आलिमे दीन या पीर साहिब के इस्तक़बाल की बात आती है तो हमारे रवैये में एक अजीब सी बे-राह रवी नज़र आती है। हम समझते हैं कि जितना ज़ोरदार शोर और चमक दमक होगी उतना ही हमारा जज़्बा ए अक़ीदत ज़ाहिर होगा। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है। या हम एक कीमती मौक़ा को ज़ाए कर रहे हैं।

मौजूदा सूरते हाल एक अलमिया

आज हम देखते हैं कि दीनि जलसों में उलमा ए किराम के आने पर न सिर्फ हज़ारों रुपए के पटाखे और आतिशबाज़ी की जाती है बल्कि इसे फख्र की बात समझा जाता है। यह मंज़र किसी कार्निवल से कम नहीं लगता। गोया हम दीन के पैग़ाम को खुशी के नाम पर एक तमाशे में तब्दील कर रहे हैं। सवाल यह पैदा होता है क्या यही हमारी दीनि ग़ैरत का तक़ाज़ा है? क्या यही हमारे बुज़ुर्गों का हक़ ए अदा है।

शरीअत की रोशनी में इसराफ और फ़ज़ूल खर्ची

इस्लाम एक मुकम्मल ज़ाबता ए हयात है जो हमें हर मामले में मियाना रवी का दर्स देता है। कुरआन मजीद में इरशाद ए बारी तआला है इन्नल मुबज़्ज़िरीना कानू इख़वानश शयातीन व कानश शैतान लि रब्बिही कफूरा

(सूरतुल इसरा, आयत 27) तर्जुमा बेशक फ़ज़ूल खर्ची करने वाले शैतान के भाई हैं और शैतान अपने रब का बड़ा नाशुक्रा है।

इस मुक़द्दस आयत से दो बातें वाजेह होती हैं

पहली बात फुज़ूल खर्ची करने वालों को शैतान के भाई करार दिया गया है। यह इंतहाई सख्त अल्फ़ाज हैं जो हमें इसराफ से डराना चाहते हैं। पटाखे और आतिशबाज़ी पर हज़ारों रुपए का ज़ियाअ क्या फ़ज़ूल खर्ची नहीं।

दूसरी बात शैतान की सिफत कफूर यानी नाशुक्रा बताई गई है। फ़ज़ूल खर्ची दरहकीकत अल्लाह की नेमतों की नाशुक्री है। अल्लाह ने जो माल दिया है उसे अल्लाह की ख़ुशनुदी के बजाए उसके नापसंदीदा कामों में कैसे लगा सकते हैं।

नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी हमें हर मामले में इतिदाल की तलक़ीन फरमाई है। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ख़ुद सादगी के पैकर थे। क्या आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत यही है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के वारिस उलमा के इस्तक़बाल में हज़ारों रुपए की आवाज़ों और धुएं में उड़ा दिए जाएं।

अदब और शौर का सही मफहूम

उलमा व मशाइख का अदब बिला-शुब्बा हमारे ईमान का हिस्सा है। लेकिन सवाल यह है कि अदब की सही शक्ल क्या है।

क्या अदब यह है कि हम उनकी आमद पर ऐसी आवाज़ें पैदा करें जो कानों को बेहरा कर दें या ऐसी रोशनियां फैलाएं जो आंखों को खैरा कर दें या फिर अदब यह है कि हम खामोशी सुकून और वक़ार के साथ उनका इस्तक़बाल करें हमारा यह अक़ीदा है कि बुज़ुर्गों की ज़ात बरकत का बाइस है। क्या बरकत का तक़ाज़ा यह है कि हम शोर मचाएं या यह कि हम अदब से खड़े हो कर उनके लिए दिल ही दिल में दुआएं करें।

हुज़ूर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद ए गिरामी है बेशक आमाल का दारोमदार निय्यतों पर है और हर शख्स के लिए वही कुछ है जिस की उसने निय्यत की। (सहीह बुखारी)

अगर हमारी निय्यत वाक़ई बुज़ुर्गों का अदब करना है तो फिर हमें ऐसे तरीके इख़्तियार करने चाहिए जो शरीअत में पसंदीदा हैं।

इस्तक़बाल का बेहतर और पसंदीदा तरीका

हमें अपने जज़्बात को शरीअत के दाइरे में रह कर ज़ाहिर करना सीखना होगा। इस्तक़बाल का अच्छा और बा-बरकत तरीका  यह हो सकता है।

खामोशी और अदब

बुज़ुर्ग पीर ओलामा ए किराम के आने पर खामोशी और अदब से खड़े होना। यह अमल ख़ुद उनके वक़ार और हमारे अदब को ज़ाहिर करता है।

क्या चमक दमक क़ियामत की निशानी है

यक़ीनन इन छोटी छोटी बातों में भी हमारी इज्तिमाई तरबीयत का राज़ पोशीदा है। जब हम ज़ाहिरी चमक दमक को असल मकसद समझने लगें और हकीकी बरकत और अदब को भूल जाएं तो यह हमारे ज़वाल की अलामत है। यह इस बात की निशानी है कि हमारी तर्जीहात बदल रही हैं। हम दीन की रूह से दूर हो कर महज़ दिखावे तक महदूद होते जा रहे हैं।

आख़िर में एक गुज़ारिश

आइए, हम अहद करें कि आज के बाद हम अपने बुज़ुर्गों का इस्तक़बाल शोर व ग़ुल से नहीं बल्कि सुकून व अदब से करेंगे। हम अपने जज़्बात को फुज़ूल खर्ची के बजाए मुफीद कामों में लगाएंगे। हमारी महफिलें इल्म व अदब का मर्कज़ बनेंगी न कि तमाशा गाह।

हमें अपनी निय्यतों को ख़ालिस करना होगा और यह समझना होगा कि हमारे बुज़ुर्गों को हमारे शोर से नहीं बल्कि हमारे ख़लूस अदब और अमल से खुशी होती है अल्लाह तआला हमें दीन को समझने और उस पर अमल करने की तौफीक अता फरमाए।

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