जिसे झुटला कोई न सका अज़ीज़ान मोहतरम! आज जिस उन्वान पर गुफ़्तगू करने का इरादा है वह है "जिसे कोई झुटला न सका" यानी मौत का ज़िक्र करूँगा। अज़ीज़ान मोहतरम! काइनात में बहुत से लोग ऐसे गुज़रे हैं जिन्होंने अल्लाह तआला की ज़ात अक़्दस का इंकार किया, वुजूद-ए बारी तआला का इंकार किया,बहुत से लोग ऐसे भी गुज़रे हैं जिन्होंने अंबिया किराम अलैहिमुस सलाम की नुबूवत व रिसालत का इंकार किया, बहुत से लोग ऐसे भी गुज़रे हैं जिन्होंने आसमानी किताबों का इंकार किया, बहुत से लोग ऐसे भी गुज़रे हैं कि जिन्होंने मलाइका का इंकार किया, हैरत अंगेज़ बात यह कि कई ऐसे फ़लासफ़ी भी गुज़रे हैं कि जिन्होंने जिंस इंसानी का इंकार किया और कहा इंसान अस्ल में (माअज़ अल्लाह सुम्मा माअज़ अल्लाह ) बंदर था और तरक्की कर के इंसान बन गया। कितनी हैरत की बात है कि बंदा अपनी ही तौहीन करता है। यह सब बातें अपनी जगह पर, आज तक कोई फ़र्द किसी भी मज़हब से तअल्लुक़ रखता हो, किसी भी फ़िर्क़े से वाबस्ता हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, यहूदी हो, मजूसी हो, सुन्नी हो, देवबंदी हो, वहाबी हो, शिया हो आज तक मौत का इंकार कोई नहीं कर सका, मौत को आज तक कोई झुटला नहीं सका। हम भी मौत का इंकार नहीं करते लेकिन मौत की तैयारी भी नहीं करते। हालांकि हम जानते हैं कि मौत किसी भी वक़्त आ सकती है बावजूद इस के हम ग़ाफ़िल हैं। जानने के बावजूद हम ग़फ़्लत की नींद सो रहे हैं, कब जागेंगे,कब बेदार होंगे?
मौत ऐसी अटल हक़ीक़त जिसे कोई झुटला नहीं सका
बादशाह के तीन (३) अजीब सवाल
अज़ीज़ान-ए मोहतरम! कहते हैं कि एक ज़माने का बा-इख़्तियार, साहिब तदबीर बादशाह अपने महल के बुलंद ओ बाला संग-ए मरमर के ऐवान में बैठा था। एक दिन उसने अपने दाना ओ बीना वज़ीर को दरबार में तलब किया। जब वज़ीर हाज़िर बारगाह हुआ तो बादशाह की निगाहों में संजीदगी और लबों पर जलाल के आसार नुमायां थे। बादशाह ने गंभीर आवाज़ में कहा: ऐ वज़ीर सल्तनत! अगर दस दिनों के अंदर तू मेरे तीन सवालात का दुरुस्त , सच्चा और मुकम्मल जवाब न दे सका तो जान ले, तेरी गर्दन क़लम कर दी जाएगी। तो वज़ीर के चेहरे का रंग फ़क़ हो गया। होंटों पर कपकपाहट और दिल पर लरज़ा तारी हो गया। लरज़ते लबों से अर्ज़ की: बादशाह आली जाह! इरशाद हो, वह तीन सवालात क्या हैं? बादशाह ने ठहरे हुए लहजे में कहा: पहला सवाल: वह कौन सी चीज़ है जिसे आज तक दुनिया का कोई शख़्स झुटला न सका? दूसरा सवाल: वह कौन सी शय है जिसे इंसान शिद्दत से चाहता है, महबूब रखता है, मगर बिल-आख़िर उसे छोड़ने पर मजबूर हो जाता है? तीसरा सवाल: वह क्या हक़ीक़त है, वह कौन सी चीज़ है जिस के सामने इंसान झुक जाता है ? यह सुनना था कि वज़ीर पर जैसे ग़म ओ फ़िक्र का तूफ़ान छा गया, नींदें हराम हो गईं, दिल बे-क़रार और ज़हन मुज़्तरिब हो गया। इल्म ओ हिक्मत के तमाम दरीचे खोलने की कोशिश की, कभी फ़क़ीहों की चौखट पर दस्तक देता, कभी फ़लासिफ़ों के अक़वाल का सहारा लेता, कभी दरवेशों की सोहबत में बैठता, मगर मुकम्मल, सच्चा और इत्मिनान बख़्श जवाब न मिल सका। हर गुज़रता दिन उसे मौत की दहलीज़ के क़रीब ले जा रहा था, और वह तीन सवाल उस के दिल ओ दिमाग़ पर कोह-ए गिरां बन कर छाए हुए थे। बिल-आख़िर क़िस्मत ने यावरी की, और एक बा-बरकत लम्हे में वज़ीर की मुलाक़ात एक जलीलुल क़द्र , साहिब इल्म ओ इरफ़ान बुज़ुर्ग से हुई, जिन के चेहरे से नूर , गुफ़्तार से हिक्मत, और निगाह से शफ़क़त टपक रही थी। वज़ीर ने आजिज़ी से अर्ज़ की: ऐ दानाए रोज़गार! मेरी ज़िंदगी का दार ओ मदार तीन सवालों के जवाबात पर है। मुझे वह गोहर-ए नायाब अता फ़रमाएँ जिस से मेरी जान बच जाए। बुज़ुर्ग ने नर्मी से तबस्सुम फ़रमाया और मोहब्बत भरी आवाज़ में पूछा: पहला सवाल क्या है? वज़ीर ने मौदिबाना अंदाज़ में सवाल पेश किया कि वह क्या चीज़ है जिस को आज तक कोई झुटला नहीं सका? बुज़ुर्ग ने आँखें मूंद कर जवाब दिया: मौत। हाँ, मौत ऐसी अटल हक़ीक़त , ऐसी बे-ख़ता सच्चाई, जिसे आज तक कोई रद न कर सका। न नमरूद झुटला सका, न फ़िरऔन, न क़ारून। क़ुरआन ने फ़ैसला सुनाया: كُلُّ نَفْسٍ ذَائِقَةُ الْمَوْتِ तर्जुमा : हर जान मौत का मज़ा चखने वाली है।
(सूरह आल-ए इमरान : 185)
वज़ीर के चेहरे पर एक अजब इत्मिनान का साया फैल गया, अर्ज़ की: दूसरा सवाल यह है कि वह क्या चीज़ है जिस को चाहते हुए भी छोड़ना पड़ता है ? बुज़ुर्ग ने निगाह बुलंद की और फ़रमाया: माल ओ दौलत। इंसान उसे हिर्स से चाहता है, दिन रात उस की तलब में तग ओ दू करता है, ख़ज़ाने भर लेता है, महलात तामीर करता है, मगर मौत आती है तो सब कुछ यहीं छोड़ जाता है। न सोना साथ जाता है, न चाँदी, न तख़्त, न ताज, सब कुछ यहीं रह जाता है, और इंसान ख़ाली हाथ रुख़्सत हो जाता है। वज़ीर ने ममनून हो कर सर झुकाया। अब तीसरा सवाल बाक़ी था।
अर्ज़ किया: ऐ साहिब हिक्मत! अब तीसरे सवाल का जवाब भी इनायत फ़रमाइए कि वह क्या चीज़ है जिस के सामने इंसान झुक जाता है? मेरी जान इसी पर मुन्हस्सिर है। बुज़ुर्ग ने मुस्करा कर फ़रमाया: इस सवाल का जवाब ज़बानी नहीं दिया जा सकता, जो कहूँगा वह करना होगा। वज़ीर ने बिला तरद्दुद कहा: क़बूल है ! जान सलामत रहे, चाहे जो हुक्म हो। बुज़ुर्ग उसे साथ ले गए। एक कुत्ता जो मिट्टी के गंदे, बदबूदार और नजासत आलूद बर-तन से पानी पी रहा था, बुज़ुर्ग ने उसी बर-तन में पानी डाल कर फ़रमाया: अब इसी बर-तन से वैसे ही पानी पी, जैसे कुत्ता पीता है। वज़ीर साकित, इज़्ज़त का बोझ दिल पर, अना का तूफ़ान ज़हन में, मगर मौत सामने थी, जान की क़द्र ने तकब्बुर की दीवार गिरा दी, इज़्ज़त ओ वक़ार ख़ामोश हो गए, वज़ीर झुकने ही को था कि अचानक बुज़ुर्ग ने पुकारा: रुक जा वज़ीर! यही तेरा तीसरा जवाब है। वज़ीर हैरत ज़दा हो कर बुज़ुर्ग की तरफ़ देखने लगा। बुज़ुर्ग ने निहायत पुर असर लहजे में फ़रमाया: तू झुक गया क्यों? अपनी जान बचाने के लिए तू अपनी ग़रज़ के सामने झुक गया। याद रख! इंसान कहता है मैं किसी के सामने नहीं झुकता, मगर जब वक़्त-ए ज़रूरत आता है , जब जान, माल, रुतबा या फ़ायदा दाव पर होता है, तो वही इंसान झुक जाता है। इंसान सब से ज़्यादा अपनी ग़रज़ के सामने झुकता है। वज़ीर पर वह लम्हा गोया सदियाँ बीत गया, और वह सीख गया इंसान के झुकने का असल मक़ाम उस की मजबूरी और ग़रज़ होती है, न कि उस की बड़ाई। यही हक़ीक़त है और यही तीसरा जवाब है।
सबक आमोज़ नुकात
मौत अटल हक़ीक़त है.न इंकार की गुंजाइश न फ़रार की राह। माल ओ दौलत फ़ानी है.चाहने के बावजूद छोड़ ना पड़ता है। इंसान अपनी ग़रज़ के सामने झुकता है..दुनिया का हर रोब, हर ग़ुरूर, हर अना और ग़रज़ के सामने मिट्टी हो जाती है। इल्म वालों की सोहबत निजात का ज़रीआ है.. वज़ीर बचा सिर्फ़ एक दाना की रहनुमाई से।
इज़्ज़त नहीं, अक़्ल काम आती है...वक़्त पर झुक जाना भी हिक्मत है।
अज़ीज़ान मोहतरम! पता चला कि मौत एक ऐसी हक़ीक़त है जिस को आज तक कोई झुटला नहीं सका और क़ियामत तक कोई भी झुटला नहीं सकेगा।
मौत का वक़्त मुक़र्रर है
अज़ीज़ान मोहतरम! जिस तरह मौत एक अटल हक़ीक़त है , वैसे ही उस का वक़्त भी अज़ल में लौह-ए महफ़ूज़ पर मुक़र्रर कर दिया गया है। यह वह फ़ैसला है जो रब्ब ज़ुलजलाल के इल्म कामिल, हिक्मत ए बालिग़ा और अद्ल मुतलक़ का मज़हर है। चुनांचे रब काइनात ने क़ुरआन हकीम में बड़े ही जलाल ओ जमाल के साथ इरशाद फ़रमाया: तर्जुमा: फिर जब उन का मुक़र्ररा वक़्त आ जाता है तो न वह एक घड़ी पीछे हट सकते हैं और न आगे बढ़ सकते हैं। (सूरह अन-नहल, आयत : 61)
यही वह हत्मी लम्हा है जो हर रूह के मुक़द्दर में लिख दिया गया है, और जो लम्हा मौऊद आ पहुँचे तो न दुनिया की कोई ताक़त उसे मुअख़्ख़र कर सकती है, न जल्द ला सकती है।
अज़ीज़ान मोहतरम! इस हक़ीक़त जादवां को सामने रखते हुए, हमें हर वक़्त मरने से पहले मरने की तैयारी करनी चाहिए, ताकि वह लम्हा हमारे लिए राहत ओ इत्मिनान का पैग़ाम बने, न कि हसरतों और नदामतों का।
मकामे मौत भी मुक़र्रर है
अज़ीज़ान मोहतरम! जैसे मौत अटल हक़ीक़त है, जैसे मौत का वक़्त मुक़र्रर है वैसे ही मौत का मक़ाम भी अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने मुक़र्रर फ़रमाया है, मुसन्निफ इब्न अबी शैबा में हदीस पाक मौजूद है:
तर्जुमा : हज़रत सैय्यद ना अब्दुल्लाह इब्न अब्बास रज़ियल्लाहु तआला अनहुमा से रिवायत है कि : हज़रत सैय्यद ना सुलेमान अलैहिस सलाम का दरबार लगा है , लोग बैठे हैं, मलकुल मौत हज़रत अज़राईल अलैहिस सलाम भी हज़रत सैय्यद ना सुलेमान अलैहिस सलाम की बारगाह में हाज़िर हुए, एक शख़्स की तरफ़ बड़े ग़ुस्से से देखने लगे, बड़ी हैरत से देखने लगे , बड़े तअज्जुब से देखने लगे , कुछ देर के बाद मलकुल मौत चले गए। अब वही शख़्स जिस को ग़ुस्से से मलकुल मौत देख रहे थे , हज़रत सैय्यद ना सुलेमान अलैहिस सलाम की बारगाह में अर्ज़ करता है : ऐ अल्लाह के नबी ! यह शख़्स कौन था जो अभी उठ कर गया है ? हज़रत सैय्यद ना सुलेमान अलैहिस सलाम ने फ़रमाया: यह मलकुल मौत थे , अज़राईल अलैहिस सलाम थे। जैसे ही मलकुल मौत का नाम सुना, काँपने लगा, रोने लगा, हिचकियाँ बँध गईं, वह अर्ज़गुज़ार हुआ: या नबिय्यल्लाह! अगर यह मलकुल मौत है तो मैंने अभी मलकुल मौत को बड़ी ग़ज़ब नाक निगाहों से मुझे तकता हुआ देखा है, मेरा दिल दहल गया है, डर लगता है कि शायद मेरी मौत क़रीब आ लगी हो। अगर मुमकिन हो तो आप हवा को हुक्म दें कि मुझे किसी दूर दराज़ मक़ाम, मसलन सर ज़मीन हिंद में पहुँचा दे, शायद मैं वहाँ मौत से बच जाऊँ। हज़रत सुलेमान अलैहिस सलाम ने बादशाह वक़्त होते हुए अपनी मुमलिकत के फ़रमानरवा हवाओं को हुक्म दिया, चुनांचे तेज़ आँधी ने उस बंदे को उठाया और लम्हों में सर ज़मीन हिंदुस्तान के किसी कोने में ला पहुँचा। लेकिन क़िस्मत का क्या कहना, जैसे ही वह शख़्स ज़मीन पर गिरा, उसी वक़्त उस की रूह क़फ़्स उंसुरी से परवाज़ कर गई। कुछ मुद्दत बाद मलकुल मौत दोबारा बारगाह सुलेमान अलैहिस सलाम में हाज़िर हुए। हज़रत सुलेमान अलैहिस सलाम ने फ़रमाया: ऐ मलकुल मौत! तू ने मेरे एक ग़ुलाम की तरफ़ बड़े हैरत ओ ग़ैज़ के साथ देखा था, क्या राज़ था उस नज़र के पीछे? मलकुल मौत ने मौदिबाना अर्ज़ किया: या नबिय्यल्लाह! मुझे अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की जानिब से हुक्म मिला था कि फ़लाँ शख़्स की रूह सर ज़मीन हिंद में क़ब्ज़ करनी है। लेकिन जब मैंने उसे यहाँ आप के पास पाया तो तअज्जुब में पड़ गया कि यह शख़्स इतना कम वक़्त में वहाँ कैसे पहुँचेगा? उसी हैरत में उसे देखा। मगर सुब्हानल्लाह! आप ने हवा को हुक्म दिया आप ने हवा को हुक्म दिया, उस ने उसे वहाँ पहुँचा दिया, और जब वह ज़मीन पर गिरा, तो मैंने अल्लाह के हुक्म से उस की जान क़ब्ज़ कर ली। (मुसन्निफ इब्न अबी शैबा , किताबुज़ ज़ुह्द , हदीस : 36985 / किमियाए सआदत , सफ़्हा: 842) अज़ीज़ान मोहतरम! यह वाक़िआ हमें बताता है कि मौत का वक़्त और जगह मुक़र्रर है, कोई तदबीर तक़दीर से बचा नहीं सकती।
मौत से कोई बच नहीं सकता
हम आज एक ऐसी ग़फ़लत में डूब चुके हैं जो हमारे दिलों को सुला चुकी है, हम दुनिया के झमीलों में इस क़दर महव हो चुके हैं कि गोया हमें कभी मौत आनी ही नहीं! हम अपने शब व रोज़ में ऐसे मग़्न हैं जैसे ज़िन्दगी का कोई इख़्तिताम ही न हो। लेकिन याद रखिए! मौत एक अटल हक़ीक़त है, जिस से न कोई नबी बचा, न वली, न बादशाह, न ग़ुलाम, न अमीर, न फ़क़ीर। हम चाहे आसमानों की बुलंदियों पर जा छिपें या ज़मीन की गहराइयों में जा बसें, मज़बूत क़िलों में पनाह लें या समंदर की तह में उतर जाएं, मौत हमें आकर ही रहेगी। जैसा कि रब-ए-काइनात, ख़ालिक़-ए-मौत-ओ-हयात क़ुरआन मजीद में इरशाद फ़रमाता है:
तर्जुमा: फ़रमा दीजिए, वह मौत जिस से तुम भागते हो, वह तुम्हें आकर ही रहेगी।
(सूरह अल-जुमुआ, आयत: 08)
तर्जुमा: तुम जहाँ कहीं भी हो, मौत तुम्हें आ लेगी, चाहे तुम मज़बूत क़िलों में ही क्यों न हो।
(सूरा अन-निसा, आयत: (78)
तोआइए! ग़फ़लत की नींद से जागें, मौत की तैयारी करें, और इस दुनिया को एक आरज़ी क़याम समझ कर अपनी आख़िरत को संवारें, क्योंकि कल नहीं, आज का दिन ही हमारी इस्लाह का दिन है।
मौत की देहलीज़ पर मोहलत का दरवाज़ा बंद हो चुका होता है
इमाम रब्बानी, हुज्जतुल इस्लाम, इमाम मुहम्मद ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैहि "किमिया-ए-सआदत" में एक इबरतनाक वाक़िया तहरीर फ़रमाते हैं: एक ज़ालिम व मुतकब्बिर बादशाह था। जब भी कहीं जाने का इरादा करता तो दुनिया की क़ीमती तरीन पोशाकें मंगवाई जातीं, मगर उस का नफ़्स मुत्मइन न होता। आख़िर कार एक निहायत क़ीमती लिबास ज़ेब-ए-तन किया, और फिर सवार होने के लिए कई अस्नाफ़ के घोड़े पेश किए गए, मगर ग़ुरूर के मारे किसी पर भी दिल न आया, आख़िर एक ख़ूबसूरत, क़ीमती घोड़ा पसन्द आया। अब वह बादशाह जाह व जलाल के साथ, रऊनत के खोल में लिपटा हुआ, सर बुलन्द, सीना तान कर महल से बाहर निकला। तकब्बुर ऐसा कि किसी को देखना भी गवारा न करता। वह इंसानों को हक़ीर, रिआया को ज़लील और सब को अपने जूते की नोक पर रखता था। बादशाह तो ग़ुरूर की इन्तिहा पर था इतने में सामने से एक फ़क़ीर नुमायाँ हुआ, मैले कुचैले कपड़े, नहीफ़ सा जिस्म, आजिज़ी का पैकर, फ़क़ीर ने सलाम किया, लेकिन ग़ुरूर के खोल में जकड़े बादशाह के कानों में यह सलाम गिराँ गुज़रा, फ़क़ीर ने आगे बढ़ कर घोड़े की लगाम थामी तो बादशाह ग़ुस्से से चीख़ा: ओये पीछे हट, गुस्ताख़! मेरा रास्ता मत रोक। फ़क़ीर ने मोअद्दबाना कहा: मुझे तुझ से कुछ कहना है। बादशाह बोला: रुक मैं घोड़े से उतर लूँ, फिर बताता हूँ तुझे। फ़क़ीर मुस्करा कर बोला: बस यही तो मैं भी चाहता हूँ। बादशाह नीचे उतरा, फ़क़ीर क़रीब आया, और बादशाह के कान में कहा: ऐ मग़रूर बादशाह! क्या तू मुझे जानता है? बादशाह ने कहा: कौन है तू? जो मेरे सामने इतनी जुर्रत कर रहा है? फ़क़ीर ने कहा: मैं वह हूँ जिस के आने पर दरवाज़े नहीं खटखटाए जाते, मैं वह हूँ जिसे इजाज़त नहीं लेनी पड़ती, मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ सफ़-ए-मातम बिछ जाती है, बच्चे यतीम हो जाते हैं, माँ बेटे से जुदा हो जाती है, ख़ुशियाँ मातम में बदल जाती हैं। बादशाह के चेहरे का रंग उड़ गया, काँपती आवाज़ में पूछा: तेरा नाम क्या है? फ़क़ीर ने कहा: मैं मलकुल मौत हूँ, इज़राईल हूँ, तेरे लिए भी वक़्त आन पहुँचा है।
अज़ीज़ान मोहतरम! वही बादशाह, जो किसी को मुँह लगाना भी अपनी शान के ख़िलाफ़ समझता था, अब इल्तिजा पर उतर आया, हाथ जोड़ कर कहने लगा: मुझे कुछ मोहलत दे दे, मैं अपने घर वालों से मिल लूँ, कुछ वसीअत कर लूँ, कुछ कह सुन लूँ। मगर जवाब आया: अब मोहलत का वक़्त गुज़र चुका है, अब तेरा हिसाब शुरू हो चुका है। और फिर उसी वक़्त, उसी लम्हे, वही बादशाह जो सर बुलन्द कर के चलता था, ज़मीन बोस हो गया, उस की जान क़ब्ज़ कर ली गई। (किमिया-ए-सआदत, सफ़्हा: 841)
अज़ीज़ान मोहतरम! ग़ुरूर के तख़्त पर बैठने वाला, आज क़ब्र के अंधेरे में बेयारो मददगार पड़ा है, आज न वह क़ीमती लिबास काम आया, न वह शाही घोड़ा, न वज़ीर, न मुशीर, काम आया तो बस एक ही चीज़, आमाल की चादर। मगर वह भी दाग़दार थी।
आइए! इबरत हासिल करें, आज हम भी इस दुनिया में ग़ुरूर, दिखावा, दौलत, शोहरत और नफ़्स के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन क्या हम ने सोचा, मलकुल मौत जब हमारे दरवाज़े पर दस्तक देगा, तो क्या हम तैयार होंगे? अल्लाह तआला हमें आजिज़ी, ख़शीयत, तौबा, और आमाल-ए-सालेहा की चादर नसीब फ़रमाए।
इख़्तितामी कलिमात
अज़ीज़ान मोहतरम! मौत क़रीब है, ज़िन्दगी फ़ानी है, क़ब्र हमारी मुनतज़िर है। आज तौबा कर लें, कल मोहलत नहीं मिलेगी।