Aulad ko sikhao quran namaz adab aur ilm

तर्जुमा: हज़रत जाबिर बिन समरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा कि हुज़ूर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि कोई शख़्स अपनी औलाद को अदब सिखाए तो उसके लिए एक सा' सदक़ा

बच्चों को इस्लामी आदाब व अख़लाक़ और दीन व मज़हब की बातें कुरान का पढना नमाज़ पढ़ना और दीन का इल्म ज़रूर सिखाएँ। बच्चों को तादीब यानी तर्बियत देने और अदब सिखाने के बारे में इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं: ये इल्म होना ज़रूरी है बेटा, माँ, बाप के पास अल्लाह अज़्ज़ व जल्ल की अमानत है, और उसका दिल एक नफ़ीस व उम्दा गोहर व मोती है जो मोम की तरह नक़्श को क़बूल कर लेता है। और कोई नक़्श उस पर मौजूद नहीं होता। उसकी मिसाल एक पाक ज़मीन की सी है। जब उसमें तुम पीच डालोगे तो वह उगेगा। तो अगर उसमें नेकी का बीज बोओगे तो उस से दीन व दुनिया की नेक बख़्ती का सिमरा हासिल होगा। माँ बाप और उस्ताज़ भी उस के सवाब में शामिल रहते हैं। और अगर उस के बरख़िलाफ़ होगा तो वह बदबख़्त है जो कुछ वह बुरा काम करेगा उसमें ये हज़रात भी शरीक होंगे।

(कीमिया-ए-सादत, सफ़ा 459) 
और अल्लाह तआला क़ुरआन पाक में इरशाद फ़रमाता है
आयत: - قُوا أَنْفُسَكُمْ وَأَهْلِيكُمْ نَارًا (सूरा तहरीम: 6)  
तर्जुमा: अपनी जानों को और अपने घरों को उस आग से बचाओ।
(तर्जुमा कंज़ुल ईमान) 

अदब सिखाने की तालीम हदीस पाक में 

हदीस: - عَنْ جَابِرِ بْنِ سَمُرَةَ قَالَ قَالَ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: لَأَنْ يُؤَدِّبَ الرَّجُلُ وَلَدَهُ خَيْرٌ لَهُ مِنْ أَنْ يَتَصَدَّقَ بِصَاعٍ  
तर्जुमा: हज़रत जाबिर बिन समरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा कि हुज़ूर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि कोई शख़्स अपनी औलाद को अदब सिखाए तो उसके लिए एक सा' सदक़ा करने से बेहतर है।  
(तिर्मिज़ी, अनवारुल हदीस, सफ़ा 348)  
सभी माँ बाप पर ये ज़रूरी है कि अपने बच्चों से शफ़क़त व मुहब्बत से गुफ़्तुगू करें। सरकार मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तमाम बच्चों के मुआमले में इस क़द्र रहीम व शफ़ीक़ थे कि आप जैसा भी किसी बच्चे को रोता हुआ देखते तो परेशान हो जाते थे। जब हज़रत इमाम हसन और हज़रत इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु तआला अन्हुमा रोते थे तो आप फ़रमाते फ़ातिमा! उन्हें रोने न दिया करो कि उनके रोने से मुझे तकलीफ़ होती है।  
जो बच्चों पर रहम न करे और शफ़क़त का सुलूक न करे उसके लिए वअीद है।  
हदीस पाक में है कि:  
لَيْسَ مِنَّا مَنْ لَمْ يَرْحَمْ صَغِيرَنَا وَلَمْ عْرِفْ حَقَّ كَبِيرِنَا  
यानी वो शख़्स हम में से नहीं जो छोटों पर रहम न करे और बड़ों के हक़ को न पहचाने।  
(बुख़ारी व मुस्लिम)  
नोट: माँ बाप को चाहिए कि वो अपने बच्चों को खाने, पीने, सोने, जागने, आने जाने, उठने बैठने, मुलाक़ात करने, सलाम करने, रास्ता चलने, गुफ़्तुगू करने, लिबास पहने और उतारने वग़ैरा के आदाब और वालिदैन व उस्ताज़ का अदब व एहतिराम करने के आदाब सिखाएँ।  

नमाज़ का हुक्म

बच्चे को नमाज़ की तर्गीब दिलाएँ। हर माँ को चाहिए कि वो अपने बच्चे को नमाज़ पढ़ने की तर्गीब दिलाए, क्योंकि हदीस शरीफ़ में औलाद को नमाज़ पढ़ाने का और न पढ़ने पर मारने का हुक्म आया है। चुनाँचे सरकार मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है
مُرُوا أَوْلَادَكُمْ بِالصَّلَاةِ وَهُمْ أَبْنَاءُ سَبْعِ سِنِينَ وَاضْرِبُوهُمْ عَلَيْهَا وَهُمْ أَبْنَاءُ عَشْرٍ وَفَرِّقُوا بَيْنَهُمْ فِي الْمَضَاجِعِ (मिश्कातुल मसाबीह सफ़ा 58)
अपनी औलाद को नमाज़ पढ़ने का हुक्म दो, जब वह सात साल के हो जाएँ और नमाज़ के लिए उन को मारो जब वह दस साल के हो जाएँ और उस उम्र के पहुँचने पर उन के बिस्तर अलग कर दो। 
आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह फ़तावा रज़विया में फ़रमाते हैं: जब बच्चा दस साल का हो जाए तो उस को मार कर नमाज़ पढ़ाएँ।
अफ़सोस सद अफ़सोस! आज कल की माएँ अपने बच्चों को दीगर उमूर के लिए तनबीह तो करती हैं मगर नमाज़ छोड़ने पर या न पढ़ने पर अपने बच्चे को तनबीह नहीं करतीं और न ही उसे डाँटती, मारती हैं। पहले की माएँ थीं जिन्होंने अपने बच्चे को बचपन से ही नमाज़ी बना कर वलियों का दर्जा दिलाया।
क़ाफ़िला-ए-सूफ़िया के सरखील हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज-ए-शकर की वालिदा माजिदा आप को बचपन में कहा करती थीं कि बेटा नमाज़ पढ़ा करो शक्कर मिलेगी, चुनाँचे जब आप नमाज़ पढ़ते तो आप की वालिदा जाए नमाज़ के नीचे शक्कर रख देतीं। एक रोज़ आप की वालिदा माजिदा कहीं बाहर तशरीफ़ ले गईं, और नमाज़ का वक़्त हो गया, बेटे ने अपनी आदत के मुताबिक़ जाए नमाज़ बिछाई और नमाज़ पढ़ने में मशग़ूल हो गए। इधर वालिदा माजिदा परेशान थीं कि अल्लाह नमाज़ का वक़्त हो गया है, मेरा बेटा अपनी आदत के मुताबिक़ नमाज़ पढ़ेगा लेकिन अगर आज शक्कर न मिली तो वो मुआमला समझ जाएगा। चुनाँचे आप ने अल्लाह अज़्ज़ व जल्ल से दुआ की कि ऐ अल्लाह! मेरी लाज रख ले, मैं अपने बेटे के सामने शर्मिंदा न होऊँ। चुनाँचे अल्लाह तबारक व तआला ने आप की दुआ को क़बूल फ़रमा कर आप की लाज रख ली, जब आप के बेटे ने जैसे ही नमाज़ पढ़ कर जाए नमाज़ का कोना उलटा, तो उस के नीचे से शक्कर निकली।
नोट: इस वाक़िए से मां को दर्स हासिल करना चाहिए कि वो ख़ुद नमाज़ पढ़ें और अपने बच्चे को भी नमाज़ की तर्गीब दिलाएँ।

तालीम-ए-क़ुरआन

माँ बाप को चाहिए कि वो अपने बच्चों को क़ुरआन पाक ज़रूर सिखाएँ, ताकि उन्हें अपनी मज़हबी किताब से दिली लगाव पैदा हो।
हदीस मुबारक है:
وَعَنْ مُعَاذِ بْنِ جَبَلٍ قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: مَنْ قَرَأَ الْقُرْآنَ وَعَمِلَ بِمَا فِيهِ أُلْبِسَ وَالِدَاهُ تَاجًا يَوْمَ الْقِيَامَةِ ضَوْؤُهُ أَحْسَنُ مِنْ ضَوْئِ الشَّمْسِ فِي بُيُوتِ الدُّنْيَا لَوْ كَانَتْ فِيكُمْ فَمَا ظَنُّكُمْ بِالَّذِي عَمِلَ بِهَذَا (मिश्कातुल मसाबीह, बाब फ़ज़ाइल-ए-क़ुरआन)
तर्जुमा: रिवायत है हज़रत मुआज़ बिन जबल फ़रमाते हैं हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया: जो क़ुरआन पढ़े और उस के अहकाम पर अमल करे तो क़ियामत के दिन उस के माँ बाप को ऐसा ताज पहनाया जाएगा जिस की रौशनी सूरज की रौशनी से अच्छी होगी। जो अगर सूरज तुम में होगा तो दुनियावी घरों में होती तो उस के मुतअल्लिक़ तुम्हारा क्या ख़याल है जो इस पर आमिल हो।
यानी अगर सूरज ज़मीन पर होता तो बताओ उस की चमक दमक की रौशनी तुम्हारे घरों में कितनी होती। इस से ज़्यादा उस ताज के मोती चमकते होंगे और आलिम बा-अमल के बारे में सोचो उस का दर्जा क़ियामत में क्या होगा वो तो हमारे ख़याल से भी वरा है।
(मिरातुल मनाबीह, जिल्द 3 सफ़ा 241)
आला हज़रत फ़ाज़िल बरेलवी रहमतुल्लाह अलैह फ़तावा रज़विया में तालीम-ए-क़ुरआन के मुतअल्लिक फ़रमाते हैं: "बच्चों को क़ुरआन मजीद पढ़ाए बाद ख़त्म-ए-क़ुरआन हमेशा तिलावत करने की ताकीद करे।
(फ़तावा रज़विया जिल्द 10, सफ़ा 46)
नोट: अक्सर लड़के, लड़कियाँ क़ुरआन तो पढ़ लेते हैं मगर जुमा तक को भी क़ुरआन की तिलावत करने की भी तौफ़ीक़ नहीं होती।
सीने में हर एक लफ़्ज़ बसा लो तो बने बात ताक़ में सजाने को ये क़ुरआन नहीं है 
मौला तआला हमें और हमारे इस्लामी भाइयों और बहनों को रोज़ाना तिलावत-ए-क़ुरआन करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए। आमीन  
वो मुआज़्ज़ज़ थे ज़माने में मुसलमाँ हो कर और तुम ख़्वार हुए तारिक-ए-क़ुरआन हो कर  
(डॉक्टर इक़बाल)  

अपने बच्चों को इल्म-ए-दीन सिखाएँ

शेख मरहूम का क़ौल अब मुझे याद आता है दिल बदल जाएँगे तालीम बदल जाने से  
(अकबर इलाहाबादी) 
इल्म एक लाजवाब दौलत है जो अज़मत का निशान और तरक्की दरजात का ज़ामिन है और ख़िलाफ़त फ़िल अर्ज़ का ताज पहनने के लिए एक शर्त है। इल्म के बग़ैर ख़ुदा की पहचान ही नहीं हो सकती।  
हज़रत शेख सादी फ़रमाते हैं: "बे-इल्म नातवाँ ख़ुदारा बिश्नास  
रहता है नाम इल्म से ज़िंदा हमेशा दाइम  
औलाद से तो बस यही दौलत चार पुश्त  
(दाग़ देहलवी)  
इंसान की अज़मत इल्म ही में पोशीदा है। इल्म इंसान को अंधेरे से निकाल कर रौशनी की तरफ लाता है। सिरात-ए-मुस्तक़ीम पर चलाता है और ख़ुदाई तआला तक पहुँचाता है। इल्म ही इंसान को जीने का ढंग सिखाता है। और उसी से दुनिया व आख़िरत सँवरती है। इसी वजह से इल्म को बहुत अहमियत व फ़ज़ीलत हासिल है।  
इल्म से रौशन हुआ है आदमियत का चिराग़  
इल्म से पाता है इंसान अपनी हस्ती का सुराग़  
طَلَبَ الْعِلْمِ فَرِيضَةٌ عَلَى كُلِّ مُسْلِمٍ وَمُسْلِمَةٍ  
और इल्म तलब करना हर मुसलमान मर्द व औरत पर फ़र्ज़ है।  
चुनाँचे अगर माँ, बाप अपनी औलाद को दीनी तालीम से आरास्ता करें तो ये बहुत फ़ज़ीलत की बात है कि इस से बढ़ कर बच्चे और वालिदैन के हक़ में कोई बात नहीं जिस से दुनिया और आख़िरत के बहुत फ़वाइद हासिल हों। लिहाज़ा औलाद के लिए दीनी तालीम का इंतज़ाम अज़हद ज़रूरी है। क्योंकि अगर माँ, बाप अपनी औलाद को ग़ुस्ल, वज़ू, नमाज़ और दीगर ज़रूरी दीनी उमूर व रोज़ मर्रा की ज़िंदगी के दीगर मसाइल के अहकाम की तालीम नहीं देंगे और इस जहालत की वजह से बच्चा किसी हराम काम का मुरतकिब हुआ तो औलाद के साथ साथ वालिदैन के ऊपर भी उस का गुनाह है कि माँ बाप की वजह से ही आज ऐसा फ़ेल सिरज़ हुआ।  
मुफ़्ती अहमद यार ख़ान नईमी रहमतुल्लाह तआला अलैह अपनी किताब "इस्लामी ज़िंदगी" में फ़रमाते हैं: "जब बच्चे और ज़्यादा होश संभालें तो सब से पहले उन को पाँचों कलिमे ईमान मुजमल व ईमान मुफ़स्सल फिर नमाज़ सिखाओ, किसी मुत्तकी या हाफ़िज़ या मौलवी के पास कुछ रोज़ बिठा कर क़ुरआन पाक और उर्दू के दीनीयात के रिसाले ज़रूर पढ़ाओ। जिस से बच्चा मालूम कर ले कि मैं किस दरख़्त की शाख़ हूँ और किस शाख़ का फल हूँ और पाकी पलीदी वग़ैरह के अहकाम याद कर ले। अगर हक़ तआला ने आप को चार पाँच लड़के दिए हैं तो कम अज़ कम एक लड़के को आलिम या हाफ़िज़-ए-क़ुरआन बनाओ क्योंकि एक हाफ़िज़ अपनी तीन पुश्तों को और एक आलिम अपनी सात पुश्तों को बख़्शवाएगा। ये ख़याल महज़ ग़लत है कि आलिम-ए-दीन को रोटी नहीं मिलती। यक़ीन कर लो अंग्रेज़ी पढ़ने से तक़्दीर से ज़्यादा नहीं मिलता। अरबी पढ़ने से आदमी बदनसीब नहीं हो जाता। मिलेगा वही जो राज़िक़ ने क़िस्मत में लिखा है। बल्कि तजुर्बा ये है कि अगर आलिम पूरा आलिम सहीहुल अक़ीदा हो तो बड़े आराम से रहता है और जो लोग उर्दू की चंद किताबें देख कर वअ्ज़ गोई को भीख का ज़रिया बना लेते हैं कि वअ्ज़ कह कर पैसा माँगना शुरू कर दिया उन को देख कर आलिम-ए-दीन से न डर। ये वो लोग हैं जिन्हों ने अपना बचपन आवारगी में ख़राब कर दिया है और अब मुहज़्ज़िब भिखारी हैं। वरना उलमा-ए-दीन की अब भी क़द्र व इज़्ज़त है जब ग्रेजुएट मारे मारे फिरते हैं तो मुदर्रिसीन की तलाश होती है और नहीं मिलते।
सहाबा कराम अलैहिमुर्रिज़वान की परवरिश बारगाह-ए-नुबुव्वत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम में ऐसी हुई जब वो मैदान-ए-जंग में आते तो आला दर्जे के ग़ाज़ी होते थे और मस्जिद में आकर आला दर्जे के नमाज़ी। घर बार में पहुँच कर आला दर्जे के कारोबारी, कचहरी में आला दर्जे के कारोबारी होते थे। अपने बच्चों को इस तालीम का नमूना बनाओ।" (इस्लामी ज़िंदगी, सफ़ा 32-33)
तुम शौक़ से कॉलेज में फूलो, पार्क में फूलो
जाइज़ है ग़ुबारों में उड़ो चर्ख़ को छूलो 
बस एक सुख़न बंदा आजिज़ का रहे याद
अल्लाह को और अपनी हक़ीक़त को न भूलो
(अकबर इलाहाबादी)
हज़रत सुफ़ियान सौरी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं
इंसान के हक़ में बेहतर है कि वो अपनी औलाद का इल्म हासिल करने पर मजबूर करे, क्योंकि औलाद की तर्बियत के मुआमले में जवाबदेह है। और इल्म-ए-हदीस सरासर इज़्ज़त है जिस ने आख़िरत तलब की वो उसे पालेगा।
सरकार आला हज़रत फ़रमाते हैं
इल्म, दीन ख़ुसूसन वज़ू, ग़ुस्ल, नमाज़, रोज़ा, के मसाइल तवक्कुल (भरोसा करना), क़नाअत (जो मिल जाए उस पर राज़ी रहना), ज़ुह्द (परहेज़गारी), इख़लास (तक़वा), तवाज़ो (आओ भगत), अमानत (किसी चीज़ को महफ़ूज़ रखना), सिद्क़ (सच्चाई), अद्ल (इंसाफ़), हया (शर्म, हिजाब, ग़ैरत), सलामत-ए-सद्र व लिसान व ग़ैरहा ख़ूबियों के फ़ज़ाइल, हिर्स (लालच), तमा (लालच), हुब्ब-ए-जाह (मरतबा की मुहब्बत), हुब्ब-ए-दुनिया (दुनिया की मुहब्बत), रिया (दिखावा), उज्ब (ग़ुरूर व घमंड), तकब्बुर (घमंड), ख़ियानत (धोखा), किज़्ब (झूठ), फ़हश (गाली, बेहूदी बात), ग़ीबत (चुग़ली), हसद (जलन), कीना (कपट) वग़ैरहा बुराइयों के रज़ाइल पढ़ाए, पढ़ाने सिखाने में रिफ़्क़ व नर्मी रखे। (फ़तावा रज़विया, जिल्द दहम, सफ़ा 47)  

आख़िरी उम्र में सहाबी रसूल इल्म में मशग़ूल

सरकार दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक सहाबी रज़ियल्लाहु तआला अन्हु से महव-ए-गुफ़्तुगू थे कि आप पर वही आई कि इस सहाबी की ज़िंदगी एक साअत बाक़ी रह गई है। ये वक़्त अस्र का था। रहमत दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब ये बात सहाबी रज़ियल्लाहु अन्हु को बताई तो उन्हों ने मुज़तरिब हो कर इल्तिजा की कि या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम! मुझे ऐसे अमल के बारे में बताइए जो इस वक़्त मेरे लिए सब से बेहतर हो। तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "इल्म-ए-दीन सीखने में मशग़ूल हो जाओ।" चुनाँचे वो सहाबी रज़ियल्लाहु अन्हु इल्म सीखने में मशग़ूल हो गए और मग़रिब से पहले ही उन का इंतिक़ाल हो गया। रावी फ़रमाते हैं कि अगर इल्म से अफ़ज़ल कोई शय होती तो रसूल ख़ुदा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसी का हुक्म फ़रमाते। (तफ़सीर कबीर, जिल्द 1, सफ़ा 410)

इल्म-ए-दीन से बरतर कोई काम नहीं 

हज़रत इमाम ग़ज़ाली अपनी किताब "कीमिया-ए-सादत" में फ़रमाते हैं: यहाँ तक कि मालूम हो गया कि आदमी दाइमी ख़तरात में घिरा हुआ है और किसी भी वक़्त वो ख़तरे से दो चार हो सकता है तो उसी से ये मालूम हो जाना चाहिए कि कोई भी काम जिस में आदमी मशग़ूल रहता हो, इल्म के हुसूल से अफ़ज़ल व बुज़ुर्ग तर नहीं और इंसान जिस पेशे से ही वाबस्ता हो, वो तलब-ए-दुनिया के लिए ही होता है। (तफ़सीर कबीर, जिल्द 1, सफ़ा 129)  
हमेशा के लिए रहना नहीं इस दार-ए-फ़ानी में  
कुछ अच्छे काम कर लो चंद दिन की ज़िंदगानी में  

तालीम-ए-निस्वाँ

तालीम लड़कियों की ज़रूरी तो है मगर तालीम औरतों को भी दीनी ज़रूर है
ख़ातून-ए-खाना हों वो सबा की परी न हों
लड़की जो बे पढ़ी हो तो वो बे शऊर है
शौहर की हो मुरीद तो बच्चों की ख़ादिमा
हर चंद हो उलूम ज़रूरी की आलिमा
असियाँ से महतरिज़ हो ख़ुदा से डरा करे
अच्छा बुरा जो कुछ है ख़ुदा ही के हाथ है
और हुस्न-ए-अाक़िबत की हमेशा दुआ करे
नेकी अगर करेगी तो फ़ितरत भी साथ है
(अकबर इलाहाबादी)
आज भी हमारे मुआशरे में लड़कियों की तालीम पर तवज्जोह नहीं है। बचियों को सिर्फ़ क़ुरआन पढ़ाने ही पर इक़्तिफ़ा करते हैं। कहते हैं कि लड़कियों को पढ़ाने की क्या ज़रूरत है, घर का काम काज आ जाए इतना काफ़ी है।  
भाइयो और बहनो! दौर बदल गया है, हालात बदल गए हैं। दौर-ए-हाज़िर में बचियों की तालीम के लिए ढेर सारे इंतज़ामात मौजूद हैं, अपनी बचियों को हाफ़िज़ा, क़ारिआ, आलिमा, फ़ाज़िला, मुफ़्तिया बनाएँ। चूँकि जब आप की बची के पास मज़बूत मज़हबी तालीम होगी तो वो पूरे घर और ख़ानदान के हालात बदल सकती है। अक्सर व बेज़्यादा देखा गया है कुछ वालिदैन अपनी बचियों को मज़हबी नहीं बल्कि दुनियावी तालीम पर ज़्यादा तवज्जोह देते हैं। दुनियावी डिग्री पाने के लिए उन्हें चाहे कितनी ही मुसीबत झेलनी पड़े, चाहे कैसे ही माहौल से गुज़रना पड़े सब बर्दाश्त है। मुहासबा करने पर मालूम होता है कि कुछ बचियाँ पढ़ाई के नाम पर कुछ घरों में आती जाती हैं। ग़ैर महरम लड़कों से मिलना जुलना होता है जिस के ढेर सारे नुक़सानात बरामद होते हैं।
भाइयो और बहनो! अगर आप अपनी बच्चियों को दुनियावी तालीम ही ख़ास तौर से दिलाना चाहते हैं तो मेरी गुज़ारिश ये है कि पहले अपनी बचियों को मज़हबी तालीम से आरास्ता करें उस के बाद दुनियावी तालीम का इंतज़ाम करें। दुनियावी तालीम दिलाने में भी इस बात का ख़याल रखें कि लड़कियाँ ग़ैर महरम मर्दों के सामने बे पर्दा न हों और ख़ुद स्कूल तक छोड़ने और लाने की ज़िम्मेदारी को निभाएँ। वरना रास्ते में लड़कियों के साथ क्या होता है? उस का इल्म कौन रखता है।
निस्वानियत ज़न का निगहबाँ है फ़क़त मर्द
तनबीह 1: ख़बरदार! जवान बेटियाँ या घर की कोई औरत दूध वालों से दूध या सब्ज़ी वालों से सब्ज़ियाँ हरगिज़ न लें। क्योंकि उस के बहुत सारे नुक़सानात बरामद होते हैं। और बसात खाने वालों से जो मुहल्ला की गलियों में घूमते हैं उन से औरतें और लड़कियाँ बिला झिझक अपने मख़सूस लवाज़िमात को ख़रीदती हैं। कितने शर्म की बात है कि औरतें ऐसी सामान मर्दों से ख़रीदती हैं, इस से परहेज़ करें। अगर औरतें बेचती हों तो उन से ख़रीदें।
निज़ अपने घर की, बहू बेटियों को खुली छत पर न चढ़ने दें, इस तरह से बेटियों वग़ैरह के छत पर चढ़ने या बे पर्दा होने से बहुत से नुक़सानात होते हैं कि लड़कियाँ घरों से किसी ग़ैर महरम के साथ निकल जाती हैं।
तनबीह 2: हमारे मुआशरे में ये भी देखा गया है कि लड़कियाँ अपने मामूँ के लड़के, चचा, ताऊँ के लड़के, खाला के लड़के, फूफ़ा के लड़के के साथ स्कूल, कॉलेज या दीगर मुज़ाफ़ात पर आती जाती हैं, अज़ रूये शरअ ग़ैर महरम के साथ जाना जाइज़ नहीं।
नोट: मामूँ के लड़के, चचा, ताऊँ के लड़के, खाला के लड़के, फूफ़ा के लड़के ये सब ग़ैर महरम हैं, इन से उसी तरह पर्दा लाज़िम है जिस तरह ग़ैर महरम मर्दों से;
बचाओ मग़रिबी तहज़ीब से तुम अपनी नस्लों को
ये वो दीमक है जो मशरिक़ की हर बुनियाद खालेगी
घरों में अपने इस्लामी उसूलों को रखो ज़िंदा
यही एक चीज़ नस्ल-ए-नौ का मुस्तक़बिल संभालेगी
हक़ीक़त ख़ुराफ़ात में खो गई ये उम्मत
रवायात में खो गई ये उम्मत

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JawazBook एक सुन्नी इस्लामी ब्लॉग है, जहाँ हम हिंदी भाषा में कुरआन, हदीस, और सुन्नत की रौशनी में तैयार किए गए मज़ामीन पेश करते हैं। यहाँ आपको मिलेंगे मुस्तनद और बेहतरीन इस्लामी मज़ामीन।

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