सफ़र का महीना और इस्लाम
इस्लाम ने इन सारे बातिल तसव्वुरात को ख़त्म कर दिया, ईमान व अक़ीदा की नेमत लाज़वाल के ज़रिए ये दर्स दिया कि मसाइब व आलाम का तअल्लुक़ किसी माह व साल से नहीं है बल्कि वह नेकुकारों के लिए अल्लाह तआला की जानिब से इम्तिहान व आज़माइश और गुनहगार के हक़ में उसकी बद-अमलियों का नतीजा है। अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है: व मा असाबकुम मिम मुसीबतिन फ बिमा कसबत अयदीकुम व यअफ़ू अन कसीर, और जो मुसीबत भी तुम्हें पहुँचती है (उस बद-अमली) के सबब पहुँचती है जो तुम्हारे हाथों ने कमाई है, हालाँकि वह (अल्लाह तआला) बहुत सी (नाफ़रमानियों) को दरगुज़र कर देता है।
सफ़र महीने में कोई नहूसत नहीं
बिरादरान-ए इस्लाम! ज़माना-ए जाहिलियत में लोग परिन्दे को उड़ा कर फ़ाल लिया करते थे, अगर परिन्दा सीधी जानिब परवाज़ करता तो फ़ाल नेक लिया करते और अगर परिन्दा ऊपर या नीचे की जानिब उड़ता तो ये समझते थे कि हम जो इरादा रखते हैं, वह होगा तो ज़रूर लेकिन उसमें ताख़ीर होगी और अगर परिन्दा बाईं जानिब परवाज़ कर गया तो वह इस से बदशगुनी (बुरागुमान) लेते कि हमारा काम नहीं बन पाएगा। उक़ाब परिन्दे को देख लेते तो फ़िक्र मंद हो जाते और बुरे अन्जाम से उसका शगुन लेते, क्योंकि उसके मअनी "अज़ाब" के हैं। अगर ग़ुराब यानी कौए को देखते तो उस से तकलीफ़-ए सफ़र और ग़ुर्बत व अजनबियत का फ़ाल लेते और हुदहुद परिन्दे को देखते तो हिदायत व दुरुस्त रवी से उसे तअबीर करते नबी-ए रहमत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जाहिलियत के अक़ाइद-ए बातिला की तर्दीद फ़रमाते हुए इरशाद फ़रमाया: ला अदवा व ला तियरतन व ला हामतन व ला सफ़र, कोई बीमारी मुस्तआदी नहीं होती, बदशगुनी जाइज़ नहीं और सफ़र के महीने में कोई नहूसत नहीं! (सहीह अल-बुख़ारी: 5757)
अल्लाह हर खैर और भलाई का अता करने वाला
बिरादरान-ए इस्लाम! हक़ीक़त में ख़ैर व भलाई अता करने वाला अल्लाह तआला ही है, चैन व सुकून बख़्शने का उसी का इख़्तियार है और हर तरह की कामयाबी अता करने वाला वही परवरदिगार है, वही राहत बख़्शता है, वही रहमत की बारिश बरसाता है, उस के साथ साथ वह अपने बन्दों को आज़माया करता है, कभी नेअमतों से सरफ़राज़ कर के आज़माता है, कभी मशक्कत व तकलीफ़ात के ज़रिए आज़माता है कि कौनसा बन्दा अपने मौला के फ़ज़्ल व करम पर उसकी बारगाह में रुजू होता है और कौन दूरी इख़्तियार कर लेता है, परवरदिगार-ए आलम ये वाज़ेह करता है कि बन्दा उस की नेअमतों पर शुक्र गुज़ारी करने लगता है या उस की बारगाह से किनारा कशी इख़्तियार कर जाता है आज़माइश पर सब्र करता है या मायूस हो कर राह-ए हक़ से दूरी इख़्तियार कर जाता है, इख़्तियार कर जाता है, किताब व सुन्नत के रोशन रास्तों पर गामज़न रहता है या ना फ़रमानी की अंधेरियों में भटक जाता है इरशाद-ए रब्बानी है तर्जुमा: और जब हम इंसान पर इनआम फ़रमाते हैं तो वह रुगर्दानी करता है और किनारा कशी इख़्तियार कर लेता है, और जब उसे मुसीबत पहुँचती है तो वह मायूस हो जाता है कुल कुल्ल यअमलु अला शाकिलतिहि फ रब्बुकुम अअलमु बिमन हुवा अह्दा सबीला, ऐ हबीब-ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आप फ़रमा दीजिए: हर कोई अपनी फ़ितरत के मुताबिक़ काम कर रहा है, तो तुम्हारा परवर्दिगार ही बेहतर जानता है कि कौन ज़्यादा सीधी राह पर है (बनी इसराईल: 84/83)
हर मुसलमान का यही अक़ीदा है कि अच्छी और बरी तक़्दीर अल्लाह तआला ही की तरफ़ से होती है और नेअमत की अता उसी की जानिब से है, मुसीबत का आना भी उसी की मशीयत से है, बर्ग व बार, बाग़ व बहार उसी की जानिब से है और तूफ़ान व क़हत साली भी उसी की तरफ़ से है, जान व माल की हिफ़ाज़त भी उसी की तरफ़ से है और जान पर आने वाली मुसीबत और माल की हलाकत भी उस के हुक्म से है, अलग़र्ज़ हर तरह से वह अपने बन्दों का इम्तिहान लेता है, जब ख़ुदाए तआला और उस के हबीब-ए पाक सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ज़ात पर ईमान है तो फिर आज़माइश और इम्तिहान ज़रूर हुआ करता है, इरशाद-ए रब्बानी है:
तर्क्याजुमा: लोग ये समझते हैं कि वह इस बात पर छोड़ दिए जाएँगे कि वह कहने लगें हम ईमान लाए और वह आज़माए नहीं जाएँगे! (अल-अनकबूत)
बिरादरान-ए इस्लाम! हमारे वहम व गुमान इस बात पर उकसाते हैं कि सफ़र का महीना आ चुका है, पता नहीं कि हमारे ये दिन कैसे गुज़रेंगे, किस बला में हम मुब्तला होंगे, कौनसी बीमारी हमें लाहिक़ होने वाली है? याद रहे कि शब व रोज़ मसाइब व मुश्किलात नहीं लाते किसी महीने की आमद की वजह से मुसीबत नहीं आती बल्कि हक़ीक़त की नज़र से देखा जाए तो हमारी बद-अमलियाँ ही इन बलाओं का सबब होती हैं और मह-ए सफ़र से मुतअल्लिक़ हमें ग़ौर करना चाहिए कि हमारे बातिल तवह्हुमात हमारे फ़ितनों और मुश्किलात में घिर जाने का सबब तो नहीं बन गए। हम अपनी दुनिया और आख़िरत के सारे मुआमलात को अल्लाह तआला और उस के अज़मत वाले रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सुपुर्द कर दें तो न हम शुकूक व शुबहात में मुब्तला होंगे और न ऐसी फ़िक्र दामन गीर होगी।
कौमे समूद की बद्शगूनी
साहिबान-ए ज़ी वक़ार! क़ुरआन-ए करीम में क़ौम-ए समूद की तोहमत परस्ती और उन की बदशगुनी (बुरागुमान) का ज़िक्र किया गया है कि उन्होंने भूख व प्यास के डर से ख़ुदा की नेअमत को ठुकरा दिया, वह ऊँटनी जो आयत-ए इलाही बना कर उनकी तरफ़ भेजी गई थी, उस ऊँटनी को उन्होंने ज़बह कर दिया, सरकशी करते रहे, ख़ुदाए तआला की नाफ़रमानी की वजह से अज़ाब में मुब्तला कर दिए गए और उन्होंने अपने मुक़द्दस नबी हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम का वुजूद और आप के उम्मतियों का उन के दरमियान रहना भी पसन्द न किया और कहने लगे कि हम आप से और आप की ख़िदमत में रहने वालों से बुराशगुन लेते हैं कि ये मुसीबत हम पर तुम्हारी ही वजह से आ पड़ी है, जैसा कि क़ुरआन-ए करीम में मौजूद है: क़ालूत तय्यर ना बिका व बिमन मअक क़ाला ताइरु कुम इन्दल्लाहि बल अन्तुम क़ौमुन तुफ़्तनून, उन्होंने कहा: हम तुम को और तुम्हारे साथ वालों को मनहूस समझते हैं, हज़रत सालेह (अलैहिस्सलाम) ने फ़रमाया: तुम्हारी नहूसत का सबब अल्लाह के इल्म में है बल्कि तुम ऐसे लोग हो जिन की आज़माइश की जाती है। (अन-नम्ल: 47)
आफ़ात बला का आना अपने अमल का नतीजा
बिरादरान-ए इस्लाम! इस वाक़िए से हमें यही रोशनी मिल रही है कि आफ़ात व मसाइब से दो-चार होना अपने ही अमाल का नतीजा है? इसे किसी और की तरफ़ मंसूब करना ये मुसलमानों का तरीक़ा नहीं बल्कि अल्लाह के मुनकिरों का तरीक़ा है, व मा असाबकुम मिन मुसीबतिन फ बिमा कसबत अयदीकुम व यअफ़ू अन कसीर. और जो मुसीबत भी तुम्हें पहुँचती है (उस बद-अमली) के सबब पहुँचती है जो तुम्हारे हाथों ने कमाई है, हालाँकि वह (अल्लाह तआला) बहुत सी (नाफ़रमानियों) को दरगुज़र कर देता है। (अश-शूरा:30)
बदशगुनी के बारे में हुज़ूर का फरमान
बिरादरान-ए इस्लाम! जहाँ तक बदशगुनी (बुरागुमान) का तअल्लुक़ है हुज़ूर नबी-ए रहमत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसके ख़्याल को ग़लत क़रार दिया और तवह्हुम परस्ती के तसव्वुर की यकसर नफ़ी फ़रमा दी सुनन अबी दाऊद और सुनन तिर्मिज़ी में हदीस शरीफ़ है: सैय्यिदना अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से मरवी है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: बदशगुनी (बुरागुमान) लेना शिर्क जैसा अमल है, आप ने ये तीन मर्तबा फ़रमाया। (सुनन अबी दाऊद: 3910) हज़रत मुल्ला अली क़ारी इस की तशरीह करते हुए फ़रमाते हैं: बदशगुनी (बुरागुमान) लेना शिर्क है, क्योंकि ज़माना-ए जाहिलियत में लोगों का अक़ीदा था कि बदशगुनी के तक़ाज़े पर अमल करने से उन को नफ़ा हासिल होता है या उन से ज़र्र और परेशानी दूर होती है और जब उन्होंने उस के तक़ाज़े पर अमल किया तो गोया उन्होंने अल्लाह के साथ शिर्क किया और उसे शिर्क-ए ख़फ़ी कहा जाता है। और किसी शख़्स ने यह अक़ीदा रखा कि फ़ाइदा दिलाने और मुसीबत में मुब्तिला करने वाली अल्लाह तआला के सिवा और कोई चीज़ है जो एक मुस्तक़िल ताक़त है तो उस ने शिर्क-ए जली का इरतिकाब किया है। (मिरकातुल मफ़ातीह शर्ह मिशकातुल मसाबीह, किताबुत तिब्ब वर रुक़ा, बाबुल फ़अ्ल वत तियरह, जिल्द 4 सफ़ा 522)
इमाम क़ाज़ी इयाज़ फ़रमाते हैं: हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसे शिर्क इस लिए फ़रमाया कि वह लोग यह अतक़ाद करते थे कि जिस चीज़ से उन्होंने बदशगुनी ली है वह मुसीबत के नुज़ूल में मुतअस्सिर सबब है और बिल-उमूम उन असबाब का लिहाज़ करना शिर्क-ए ख़फ़ी है, बत्तौर-ए ख़ास जब उस के साथ जहालत और बदअतक़ादी भी हो तो उस का शिर्क-ए ख़फ़ी होना और भी वाजेह है। (मिरकातुल मफ़ातीह, जिल्द 4, सफ़ा 523/522)
बदशगुनी जाइज़ नहीं और सफ़र के महीने में कोई नहूसत नहीं
सुनन अबी दाऊद शरीफ़ की एक रिवायत में है, हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "अल-इयाफ़तु वत तियरतु वत तर्क़ु मिनल जिब्त", परिन्दे के ज़रिए फ़ाल लेना किसी चीज़ से बदशगुनी (बुरागुमान) लेना और कंकरियों से फ़ाल निकालना शैतानी काम है। (सुनन अबी दाऊद: 3907)
बिरादरान-ए इस्लाम! बुख़ारी शरीफ़ में हदीस शरीफ़ है: कोई बीमारी मुताअद्दी नहीं होती, बदशगुनी जाइज़ नहीं और सफ़र के महीने में कोई नहूसत नहीं! (सहीह अल-बुख़ारी: 5757)
हज़रत सैय्यिद अबुल हसनात सैय्यिद अब्दुल्लाह शाह साहिब नक्शबन्दी मुजद्दिदी कादरी मुहद्दिस दकन इस की शर्ह करते हुए ज़जाजतुल मसाबीह के हाशिए में रक़मतराज़ हैं: इमाम अबू दाऊद ने अपनी सुनन में बयान किया कि मुहद्दिस बक़िया ने इस हदीस शरीफ़ के बारे में अपने उस्ताद मुहम्मद इब्ने राशिद से दरयाफ़्त किया तो उन्होंने फ़रमाया: जाहिलियत में लोग माहे सफ़र की आमद को मनहूस समझते थे तो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस हक़ीक़त को वाज़ेह करते हुए इरशाद फ़रमाया कि माहे सफ़र मनहूस नहीं है! अल्लामा क़ाज़ी इयाज़ ने फ़रमाया: इस हदीस शरीफ़ से इस वहम की नफ़ी हो जाती है जो माहे सफ़र से मुतअल्लिक़ किया जाता है कि इस में आफ़ात व बला बकसरत नाज़िल हुआ करती हैं। (हाशिया ज़जाजतुल मसाबीह, जिल्द 3, किताबुत तिब्ब वर रुक़ा, बाबुल फ़अ्ल वत तियरह, सफ़ा 447)
बिरादरान-ए इस्लाम! मज़कूरा बाला अहादीस शरीफ़ा की रोशनी में वाज़ेह हो जाता है कि सफ़र के महीने को मनहूस समझना ग़ैर इस्लामी है, इस महीने में शादी ब्याह से परहेज़ करना और ख़ुशी व मसर्रत की तक़ारीब के इनिक़ाद को ना मुनासिब समझना ये सब बेजा उमूर हैं और जाहिलियत के बातिल तवह्हुमात की पैदावार हैं, जिन की दीन-ए इस्लाम में कोई गुंजाइश नहीं, माहे सफ़र की तारीख़ी हैसियत भी अगर देखी जाए तो एक रिवायत के मुताबिक़ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज़रत ख़ातून-ए जन्नत का निकाह हज़रत अली करमल्लाहु वज्हह से इसी मह-ए मुबारक में करवाया था, हालाँकि मअरूफ रिवायत मह-ए शव्वाल की है, माहे सफ़र में निकाह के मुतअल्लिक़ रिवायत है:
क़ाला जअफ़र इब्ने मुहम्मद: हज़रत जअफ़र इब्ने मुहम्मद बयान फ़रमाते हैं कि, तज़व्वजा अली फ़ातिमा - रज़ियल्लाहु अन्हुमा - फी शहरे सफ़रि फीस सनतिस सानिया, हज़रत अली करमल्लाहु वज्हह ने हज़रत फ़ातिमा अज़-ज़हरा से दो हिजरी सफ़र के महीने में अक़्द फ़रमाया और आप की रुख़्सती हिजरत के बाईस महीने बाद अवाइले मह-ए ज़िलक़दा में हुई। (सबुलुल हुदा वर रशाद, मुअल्लिफ: अस-सालेही अश-शामी, जिल्द: 11 सफ़ा: 37)
बिरादरान-ए इस्लाम! बाज़ लोग मह-ए सफ़र में किसी अहम काम के लिए सफ़र करना भी मुनासिब नहीं समझते, हालाँकि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हिजरत के मौक़े पर मक्का मुकर्रमा से मदीना मुनव्वरा की जानिब सफ़र का आग़ाज़ एक रिवायत के मुताबिक़ मह-ए सफ़र के आख़िर में फ़रमाया था (शर्हुज़ ज़रक़ानी अलल मवाहिब, जिल्द 2 सफ़ा 102)
हाज़िरीन-ए मोहतरम! ये सफ़र मुक़द्दस दीन-ए इस्लाम की ग़ैर मामूली तरक़्क़ी और मुसलमानों की ख़ुशहाली, फ़तह व नुसरत का बाइस साबित हुआ। रहमतुल्लिल आलमीन सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यही वो सफ़र था जो अपने अंदर फ़तह-ए मक्का की अज़मतों को लिए हुए था गोया मह-ए सफ़र में हिजरत करना इत्माम-ए शरीअत का ज़रिया और फ़रोग़-ए इस्लाम का वसीला क़रार पाया, बलाओं के नाज़िल होने का नहीं बल्कि मसाइब व मुश्किलात के दफ़ होने का सबब बना। इसी वजह से हमारे उर्फ़ में मह-ए सफ़र को सफ़रुल मुज़फ़्फ़र कहते हैं, जिसके मअनी कामयाबी, फ़तह व नुसरत के हैं, मुसलमानों को ऐसी बदशगुनी से क़तई तौर पर परहेज़ करना चाहिए,
और इसी तरह तेरह तेज़ी के नाम से अंडे और तेल वग़ैरह सरहाने रखना भी लग़व काम है, इन उमूर से भी एहतियात ज़रूरी है। क़तअ नज़र इसके रज़ा-ए इलाही की ख़ातिर फ़ुक़रा व मसाकीन पर सदक़ा व ख़ैरात करना दूसरे महीनों की तरह इस महीने में भी जाइज़ व मुस्तहसन है।
बिरादरान-ए इस्लाम! मुआशरा में ये तसव्वुर भी आम है कि मह-ए सफ़र के आख़िरी चहार शंबा (हफ़्ते का चौथा दिन यानी बुधवार) को सैर व सियाहत का इहतिमाम किया जाए, इस दिन तफ़रीह के लिए रवाना हों और घास, सब्ज़ा वग़ैरह पर चहलक़दमी हो। अगर ये चहलक़दमी इस तसव्वुर के साथ की जाए कि बला और वबा से हिफ़ाज़त हो जाती है और मसाइब दफ़ हो जाते हैं तो इस का इस्लामी कुतुब से कोई सबूत नहीं मिलता, अगर कोई इसी पर इसरार करे तो अर्ज़ किया जाएगा: अगर तुम ये समझते हो कि आख़िरी चहार शंबा (हफ़्ते का चौथा दिन यानी बुधवार) को बलाएँ ज़्यादा नाज़िल होती हैं, तो ऐसी सूरत में सैर व तफ़रीह नहीं बल्कि इबादत व रियाज़त की जानी चाहिए, नेकी व भलाई की फ़िक्र करनी चाहिए और सदक़ा व ख़ैरात करना चाहिए, क्योंकि इस से ग़ज़ब-ए इलाही दूर हो जाता है और रज़ा-ए इलाही के आसार नुमायाँ होते हैं, जैसा कि जामे तिर्मिज़ी शरीफ़ में है:
हज़रत अनस इब्ने मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु से मरवी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया: यक़ीनन सदक़ा और नेकी परवरदिगार के ग़ज़ब की आग को ठंडा करती है और बुरी मौत को दफ़ करती है। (जामे अत-तिर्मिज़ी: 664)
बिरादरान-ए इस्लाम! जब भी कोई शख़्स मुसीबत से दो-चार हो तो उसे अपने अमल का जाइज़ा लेना चाहिए, अपने अमाल में जहाँ कुताही वाक़े हुई है उसकी इस्लाह करनी चाहिए जहाँ लग़ज़िश हुई है उसे सुधारना चाहिए, तौबा कर के अल्लाह तआला से रुजू होना चाहिए क्योंकि अपने बुरे अमाल ही तमाम तर नहूसतों का बाइस होते हैं, अभी आप सुन चुके हैं कि नेक व सालेह बन्दे को भी ज़िन्दगी में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के मसाइब व आलाम से गुज़रना पड़ता है और ये अल्लाह तआला की तरफ़ से उस के लिए इम्तिहान होता है, या ये मुसीबतें गुनाहों के कफ़्फ़ारे का सबब बनती हैं। जो लोग मसाइब व आलाम का सब्र व इस्तिक़ामत के ज़रिए मुक़ाबला करते हैं वह इस इम्तिहान में कामयाब हैं जिन के क़दम आफ़ात व बलाया की वजह से नहीं लड़खड़ाते अल्लाह की नुसरत व हिमायत उनके साथ है।
ज़जाजतुल मसाबीह में सुनन अबी दाऊद शरीफ़ के हवाले से हदीस-ए पाक मनक़ूल है: सैय्यिदना उरवा इब्ने आमिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है उन्होंने फ़रमाया: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ख़िदमत-ए अक़दस में बदशगुनी का ज़िक्र किया गया तो आप ने इरशाद फ़रमाया: अच्छा शगुन, फ़ाल नीक है और बदशगुनी किसी मुसलमान के काम में रुकावट नहीं बनती, पस जब तुम में से कोई ऐसी चीज़ देखे जिसे वह ना पसन्द करता है तो उसे चाहिए कि वह ये दुआ पढ़े:
"अल्लाहुम्मा ला यअती बिल हसनाति इल्ला अन्ता व ला यदफ़उस सय्यिआती इल्ला अन्ता, व ला हौला व ला क़ुव्वता इल्ला बिका" : ऐ अल्लाह हर क़िस्म की भलाइयों को लाने वाला तू ही है और तमाम क़िस्म की बुराइयों को दफ़ करने वाला भी तू ही है, न बुराई से बचने की कोई ताक़त है और न नेकी करने की कोई क़ुव्वत है, मगर अल्लाह ही की मदद से। (सुनन अबी दाऊद: 3919)
बिरादरान-ए इस्लाम! ये हक़ीक़त है कि एक दिन दूसरे दिन पर फज़ीलत व बरतरी रखता है, एक वक़्त दूसरे वक़्त की बह निस्बत ज़्यादा बरकत व रहमत वाला होता है, लेकिन फी नफ़्सिही किसी वक़्त या दिन में नहूसत का तसव्वुर ग़ैर इस्लामी नज़रिया है, जहाँ तक चहार शंबा की बात है तो सहीह हदीस-ए पाक में उस की फज़ीलत आई है, सहीह मुस्लिम और मुसनद इमाम अहमद वग़ैरह में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत मज़कूर है:
सैय्यिदना अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है उन्होंने फ़रमाया: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मेरा हाथ पकड़ कर इरशाद फ़रमाया: अल्लाह ने हफ़्ते के दिन मिट्टी को पैदा फ़रमाया.. और नूर को चहार शंबा (हफ़्ते का चौथा दिन यानी बुधवार) के दिन पैदा फ़रमाया। (सहीह मुस्लिम: 7054)
मज़कूरा हदीस-ए पाक से मालूम हुआ कि चहार शंबा वो मुबारक व मुक़द्दस दिन है जिस में नूर की पैदाइश हुई लिहाज़ा ये तसव्वुर ग़ैर दुरुस्त है कि इस में कोई बड़ा और अहम काम नहीं करना चाहिए। लिहाज़ा इस दिन कोई भी ख़ुशी वाला जाइज़ काम अंजाम देना इन शा अल्लाह बाबरकत ही होगा। इमाम सख़ावी ने मक़ासिदुल हसना में लिखा है: बुरहानुल इस्लाम ने अपनी किताब तअलीमुल मुतअल्लिम में अपने उस्ताद-ए गिरामी साहिब-ए हिदाया अल्लामा मरग़ीनानी का तरीक़ा बयान किया है कि आप चहार शंबा के दिन सबक़ के आग़ाज़ का इहतिमाम किया करते और इस सिलसिले में ये हदीस-ए पाक रिवायत फ़रमाया करते कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इरशाद फ़रमाया: चहार शंबा के दिन जिस चीज़ का भी आग़ाज़ किया जाए वह पाया-ए तकमील को पहुँचती है। (अल-मक़ासिदुल हसना, हर्फ़ुल मीम)
मोहतरम सामेईन! अगर हम मुसलमान अपने दिल में ख़ुदा का ख़ौफ़ बिठाए रखें, उस के फ़ज़्ल व करम के उम्मीदवार बने रहें और अपने हाल-ज़ार पर नदामत के आँसू बहाएँ तो ज़रूर हमारी ज़िन्दगी में बरकत रख दी जाएगी और हमारे दरमियान से रंज व ग़म, दर-दो-आलम दूर कर दिया जाएगा और हुज़्न व मलाल ख़त्म कर दिया जाएगा। इस सिलसिले में इमाम राज़ी की तफ़्सीर-ए कबीर के हवाले से एक नसीहत आमोज़ वाक़िया बयान किया जाता है, जो हमारे लिए निहायत ही क़ीमती और नफ़ा बख़्श है:**
हज़रत इमाम हसन बसरी रहमतुल्लाहि अलैह की ख़िदमत में एक शख़्स ने हाज़िर हो कर क़हत साली से मुतअल्लिक़ फ़रियाद की तो आप ने उसे इस्तिग़फ़ार करने का हुक्म दिया। किसी दूसरे शख़्स ने अपना फ़क़्र व फ़ाक़ा और तंगदस्ती का हाल बयान किया, इसी तरह किसी और शख़्स ने औलाद न होने पर अपनी परेशानी ज़ाहिर की और किसी ने अपने बाग़ व बहार में फल व फूल और ताज़गी से मुतअल्लिक़ आप की ख़िदमत में मअरूज़ा किया और सब को इमाम हसन ने इस्तिग़फ़ार की तलक़ीन की - ख़ुदाए तआला से माफ़ी तलब करने और बख़्शिश की दुआ माँगने का हुक्म दिया। लोगों को इस पर तअज्जुब हुआ, अर्ज़ करने लगे: "आप की ख़िदमत में लोग अलग-अलग मअरूज़े ले कर हाज़िर हुए और तमाम अफ़राद को आप ने अल्लाह तआला से मग़फ़िरत तलब करने की तलक़ीन फ़रमाई"। तो आप ने जवाब इरशाद फ़रमाते हुए ये आयत-ए मुबारका तिलावत फ़रमाई:
(तर्जुमा) "तो मैं ने कहा: तुम अपने परवरदिगार से बख़्शिश तलब करो! बेशक वह ख़ूब मग़फ़िरत फ़रमाने वाला है, वह तुम पर मुसलाधार बारिश का नुज़ूल फ़रमाएगा और माल व दौलत और औलाद के ज़रिए तुम्हारी मदद फ़रमाएगा, और तुम्हारे लिए बाग़ात बना देगा और तुम्हारे लिए नहरें जारी फ़रमा देगा।" (सूरह नूह: 10-12)
अज़ीज़ान-ए मोहतरम! हज़रत इमाम हसन ने तमाम लोगों की परेशानियों का हल इस्तिग़फ़ार-ए इलाही क़रार दिया और उम्मत को बारगाह-ए इलाही की तरफ़ रुजू होने की तालीम फ़रमाई। आज हमें इसी फ़िक्र को अपनाने की ज़रूरत है कि हमारे लैल व नहार ज़िक्र-ए इलाही में गुज़रते रहें, हम शरीअत की पाबंदी करें और क़ुरआन-ए करीम व हदीस-ए शरीफ़ पर अमल पैरा रहें, अपने अमाल का मुहासिबा करते रहें, वक़्त की क़द्र करें, अपने लमहात को ग़फ़्लत में न गुज़ारें, क्योंकि नहूसत हमारी ज़िन्दगी में उसी वक़्त आ सकती है जब हम अल्लाह और उस के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की याद और उनकी इताअत व पैरवी से ग़ाफ़िल रहें।
सूरह-ए तौबा की आयत नंबर: 37 के तहत तफ़्सीर-ए रूहुल बयान में मज़कूर है: "हर वह लमहा जिस में बन्दा-ए मोमिन इताअत-ए इलाही में मसरूफ़ रहा है, वह उस के हक़ में बरकत वाला और सअादत मंदी का बाइस है और हर वह लमहा जिस में वह अल्लाह तआला की नाफ़रमानी में मशग़ूल रहा है; वह उस के हक़ में बे-बरकत है, दरअस्ल नहूसत व बे-बरकती गुनाह के इरतिकाब में है।" (तफ़्सीर रूहुल बयान, सूरह तौबा, आयत नंबर: 37)
हाज़िरीन-ए कराम! यक़ीनन जिस वक़्त को हम ने अल्लाह तआला की इताअत में गुज़ारा वह वक़्त हमारे लिए बरकत वाला है, जिस लमहे को हम ने सुन्नतों पर अमल करने में बसर किया वह लमहा हमारे लिए सअादत वाला है, जिस घड़ी को हम ने इस्लामी अहकाम पर अमल करते हुए बिताया वह घड़ी हमारे लिए बाइस-ए रहमत है। अल्लाह तआला हमारे क़ुलूब में हुस्न-ए अक़ीदा को जा-गज़ीन फ़रमाए, अमल-ए सालेह की दौलत नसीब फ़रमाए और तालीमात-ए किताब व सुन्नत पर साबित-क़दम रहने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए! आमीन।
