तुलूअ सुबह से ग़ुरूब आफ़ताब तक खाने पीने और जिमा से बाज़ रहने का नाम रोज़ा है, रोज़ा रब की रज़ा में राज़ी रहने का एक पाकीज़ा अमल है, रोज़ा अपने दामन में जहाँ बे-पनाह दीनी व उख़रवी फ़वाइद व बरकात लिए हुए है, वहीं इसके अंदर जिस्मानी और तिब्बी फ़वाइद के कई असरार व रमूज़ पिनहाँ है।
रोज़ा रखना बेहतर है
क़ुरआन हकीम में रोज़े की हिकमत इन अल्फ़ाज़ में बयान की गई है: وَأَنْ تَصُومُوا خَيْرٌ لَكُمْ إِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُونَ। यानी तुम्हारे लिए रोज़ा रखना बेहतर है अगर तुम जानो।
[अल-बक़रह 2:184]
दरअसल यहाँ "अगर तुम जानो" से इस अमर की तरफ इशारा फ़रमाया गया है कि अगर तुम इल्म-ए-हयातियात को समझो तो तुम्हारे लिए बेहतर यही है कि तुम रोज़े रखो, क्योंकि रोज़ा अपने अंदर बे-शुमार रूहानी, नफ़सियाती और तिब्बी फ़वाइद रखता है।
हकीम-ए-हाज़िक नबी करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने रोज़े के तिब्बी फ़वाइद निहायत ही जामे और बलीग़ अंदाज़ में बयान फ़रमाए हैं, चुनांचे इरशाद फ़रमाते हैं: "सौमू तसिह्हू"। यानी रोज़े रखो, तंदुरुस्त हो जाओगे।
[मजमउल ज़वाइद, जिल्द 5, सफ़ा 344]
दूसरी जगह हज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने यूँ इरशाद फ़रमाया: "ली कुल्लि शैइं ज़कात व ज़कातुल जिसदिस सौम"। यानी हर शय की ज़कात है और जिस्म की ज़कात रोज़ा है। [मुअज्जमुल कबीर 6 / 238] जिस तरह ज़कात माल को पाक कर देती है, उसी तरह रोज़ा जिस्म को तमाम अमराज़ से पाक कर देता है।
तीन तरह की मखलूक
ख़ालिक-ए-काइनात ने तीन तरह की मख़्लूक़ पैदा की है: नूरी यानी फ़रिश्ते, नारी यानी जिन्न और ख़ाकी यानी इंसान जिस के सर अशरफुल मख़्लूक़ात का ताज ज़रीं रखा गया, इंसान रूह और जिस्म के मजमूए को कहा जाता है, इसका जिस्म मिट्टी से बनाया गया और इसमें रूह आसमान से ला कर डाली गई, जिस्म की ज़रूरियात का सामान ज़मीनी अशया अनाज, ग़ल्ला, फल और फूल से किया गया, जबकि रूह की ग़िज़ा का इंतज़ाम आसमानों से होता रहा, हम साल के ग्यारह महीने अपनी जिस्मानी ज़रूरतों को इस काइनात में पैदा होने वाली अशया से पूरा करते हैं और अपने जिस्म को तंदुरुस्त व तावाना रखते हैं, जबकि रूह की ग़िज़ाई ज़रूरत पूरी करने के लिए ख़ालिक-ए-काइनात ने हमें साल में एक मुबारक महीना रमज़ानुल मुबारक अता फ़रमाया है।
रोज़े से जिस्मानी फाएदा
रूहानी और जिस्मानी तौर पर सिहतयाब रहने के लिए अल्लाह तआला ने हमें रमज़ान शरीफ़ के रोज़े अता फ़रमाए, यक़ीनन इसमें अल्लाह तआला की करीमाना हिकमत-ए-अमली शामिल है, अआज़ा रईसा ख़ास तौर से दिल व दिमाग़ और जिगर को रोज़ा रखने से तक़वीयत मिलती है और उनके अफ़आल में दुरुस्तगी पैदा होती है, रोज़ा रखने से इज़ाफ़ी चरबी ख़त्म हो जाती है, रोज़ा ज़हनी तनाव को ख़त्म करने में अहम रोल अदा करता है, वक़्त पर सहर और इफ़्तार कर के मोटापे के शिकार लोग इस से निजात पा सकते हैं, वो औरतें जो मोटापे का शिकार और औलाद की नेअमत से महरूम हैं, उन के लिए रोज़ा निहायत ही फ़ाएदामंद साबित हो सकता है क्योंकि जदीद मेडिकल साइंस का मानना है कि वज़न कम होने के बाद बे-औलाद ख़वातीन के यहाँ औलाद की पैदाइश के इमकानात ज़्यादा रोशन हो जाते हैं, जब हम रोज़ा रखते हैं तो हमारे मअदे के फ़ासिद माद्दे ज़ाएल हो जाते हैं, रोज़े का एक अहम फ़ाएदा यह भी है कि जो लोग मन्शियात, शराब और तंबाकू नोशी जैसी तबाह कुन बुराइयों के आदी हो चुके हैं, वो रोज़े की मदद से इन बुराइयों पर क़ाबू पा सकते हैं, तजुर्बात बताते हैं कि रोज़ा रखने की वजह से इंसान की ज़िंदगी में इज़ाफ़ा होता है, रोज़ा रखने की वजह से हमारा दिल निज़ाम-ए-हज़्म में अपनी तवानाई सरफ़ करने से आज़ाद हो जाता है और वह इस तवानाई को "ग्लोब्यूलिन" पैदा करने पर सरफ़ करता है, ग्लोब्यूलिन हमारे जिस्म की हिफ़ाज़त करने वाले मुदाफ़िअती निज़ाम को तक़वीयत पहुँचाता है, रोज़ा क़ुव्वत-ए-मुदाफ़अत के निज़ाम को बेहतर बनाता है, रोज़ा रखने की वजह से दिमाग़ी ख़लियात को फ़ाज़िल माद्दों से निजात मिल जाती है और इसी तरह से दिमाग़ी सलाहियतों को जिला मिलती है।
वैसे तो मुसलमान इस्लामी अहकाम की रोशनी में हुक्म-ए-ख़ुदावंदी की तामील के लिए रोज़ा रखते हैं ताहम रूहानी तस्कीन के साथ साथ रोज़ा जिस्मानी सिहत पर भी कई मुसबत असरात मुरत्तब करता है जिसे दुनिया भर के तिब्बी माहिरीन ख़ुसूसन डॉक्टर माइकल, डॉक्टर जोसेफ, डॉक्टर सैम्यूएल अलेक्ज़ेंडर, डॉक्टर ई.एम. क्लाइव, डॉक्टर सिग्मंड फ़्रायड, डॉक्टर जैकब, डॉक्टर हेनरी एडवर्ड, डॉक्टर ब्राम जे., डॉक्टर एमर्सन, डॉक्टर ख़ान यमरट, डॉक्टर एडवर्ड निकलसन और जदीद साइंस ने हज़ारों क्लीनिकल ट्रायल्स के बाद तस्लीम किया है।
रोज़े की अहमियत
रोज़े की अहमियत व अफ़ादियत का अंदाज़ा प्रोफ़ेसर निकोलाई के इस बयान से होता है जो उन्होंने अपनी किताब "सिहत की ख़ातिर भूक" में ज़िक्र किया है, वो लिखते हैं: "हर इंसान, ख़ास तौर पर बड़े शहरों में रहने वालों के लिए ज़रूरी है कि वो साल में तीन चार हफ़्ते तक खाना खाने से बाज़ रहें ताकि वो पूरी ज़िंदगी सिहतयाब रहें।"
इस्लाम ने रोज़े को मोमिन के लिए शिफ़ा क़रार दिया, जब साइंस ने इस की हक़ीक़त की तहक़ीक़ की तो चौंक उठी और यह इक़रार किया कि इस्लाम एक कामिल मज़हब है, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के मशहूर प्रोफ़ेसर मूर पॉल्ड अपना क़िस्सा इस तरह बयान करते हैं कि मैंने इस्लामी उलूम का मुतालअ किया और जब रोज़े के बाब पर पहुँचा तो मैं चौंक पड़ा कि इस्लाम ने अपने मानने वालों को इतना अज़ीम फ़ॉर्मूला दिया है, अगर इस्लाम अपने मानने वालों को कुछ और न दे कर सिर्फ़ रोज़े का फ़ॉर्मूला ही दिया होता तो इस से बढ़ कर किसी और नेअमत की ज़रूरत न थी, मैंने सोचा कि इस को आज़माना चाहिए, फिर मैं मुसलमानों के तर्ज़ पर रोज़े रखना शुरू किए, चूँकि मैं अर्सा दराज़ से वर्म-ए-मअदा में मुब्तला था, कुछ दिनों के बाद ही मैंने महसूस किया कि इसमें कमी वाक़िअ हुई है, मैंने रोज़ों की मश्क़ जारी रखी, कुछ अर्से बाद ही मैंने अपने जिस्म को नॉर्मल पाया और एक महीने बाद अपने अंदर इंक़िलाबी तब्दीली महसूस की।
डॉक्टर ब्लोक नूर बाक़ी के मुताबिक़ रोज़े का हैरान कुन असर ख़ास तौर पर जिगर पर मुरततिब होता है, क्योंकि खाना हज़्म करने के अलावा जिगर के और मज़ीद 15 काम भी होते हैं, यह इस तरह थकान का शिकार हो जाता है, जैसे एक चौकीदार सारी उम्र के लिए पहरे पर खड़ा हो, रोज़े के ज़रीए जिगर को चार से छह घंटों तक आराम मिल जाता है, यह रोज़े के बग़ैर क़तई नामुमकिन है, जिगर पर रोज़े के बरकात का मुफ़ीद असर पड़ता है, जैसे जिगर के इंतिहाई मुश्किल कामों में एक काम इस तवाज़ुन को बरक़रार रखना है जो ग़ैर हज़्म शुदा ख़ुराक और तहलील शुदा ख़ुराक के माबैन होता है, इसे या तो हर लुक़्मे को स्टोर में रखना होता है या फिर ख़ून के ज़रीए इस को हज़्म हो कर तहलील हो जाने के अमल की निगरानी करनी पड़ती है, रोज़े के ज़रीए जिगर तवानाई बख़्श खाने के स्टोर करने के अमल से बड़ी हद तक आज़ाद हो जाता है और अपनी तवानाई Globulins पैदा करने पर सरफ़ करता है जो जिस्म के मुदाफ़अती निज़ाम की तक़वीयत का बाइस है। डॉक्टरों ने यह तहक़ीक़ की है कि एक महीने के रोज़े रखने से बहुत सी बीमारियाँ इंसान के जिस्म से ख़ुद ब ख़ुद दूर हो जाती हैं, रोज़ों का जिस्मानी तौर पर भी फ़ाएदा है और रूहानी तौर पर भी, इस दुनिया में बहुत लोग वो भी होते हैं कि जिन के घर का ग़ुसल ख़ाना किसी ग़रीब आदमी के घर से भी ज़्यादा महँगा और बड़ा होता है, पूरे साल वो अपनी मर्ज़ी से खाते पीते हैं अगर रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न होते तो हो सकता है कि उन्हें यह पता ही न चलता कि जो ग़रीब आदमी अपने घर में बच्चों के साथ भूका है, उस के साथ क्या गुज़रती है? अल्लाह तआला ने रोज़े फ़र्ज़ कर के हमारे ऊपर इहसान किया, इंसान जब सारा दिन कुछ न खाए, कुछ न पिए तब ख़याल आता है कि जो भूका रहता होगा, उस का क्या हाल होता होगा?
तीन काम और रोज़ा
रूसी माहिरुल अबदान प्रोफ़ेसर वी.एन. निक्शीन ने लंबी उम्र से मुतअल्लिक़ अपनी एक इक्सीर दवा के इंकिशाफ़ के सिलसिले में लंदन में 22/ मार्च 1940 को बयान देते हुए कहा कि अगर ज़ील के तीन उसूल ज़िंदगी अपना लिए जाएँ तो बदन के ज़हरीले मवाद ख़ारिज हो कर बुढ़ापा रोक देते हैं:
अव्वल: ख़ूब मेहनत किया करो, एक ऐसा पेशा जो इंसान को मशग़ूल रखे जिस्म के रग-ओ-रीशा में तरो-ताज़गी पैदा करता है, बशर्तेकि ऐसा शग़ल ज़हनी तौर पर भी क़ुव्वत बख़्श हो, अगर तुम्हें अपना काम पसंद नहीं तो फ़ौरन तर्क कर देना चाहिए।
दूयम: काफ़ी वर्ज़िश किया करो, बलख़ुसूस ज़्यादा चलना फिरना चाहिए।
सूयम: ग़िज़ा जो तुम पसंद करो खाया करो लेकिन हर महीने में कम अज़ कम फ़ाक़ा ज़रूर किया करो।
हर सलीमुल फ़ितरत आदमी अच्छी और बुरी चीज़ को जानता है लेकिन बहुत से लोगों के इरादे की कमज़ोरी पर ख़तर लज़्ज़त कोशी का सबब बनती है, ख़्वाहिशात का तूफ़ान रोकने के लिए इरादे की पुख़्तगी ज़रूरी है, रोज़ा इरादे की तक़वीयत के लिए बेहतरीन अमली मश्क़ है, आदमी का देर तक खाने पीने से रुका रहना इसे मेहनत व मशक्क़त बर्दाश्त करने का आदी बनाता है, ज़िंदगी कोई बाग़-ए-जन्नत नहीं है बल्कि यह एक ऐसा मैदान है जिस में मक़ासिद की तकमील के लिए पैहम मुक़ाबला जारी रहता है, इस में रुकावटें भी पेश आती हैं, इस में अमल-ए-पैहम और जहद-ए-मुसलसिल की ज़रूरत पड़ती है, यह चीज़ ताक़त व इरादे के बग़ैर मुमकिन नहीं, रोज़े में क़ुव्वत-ए-इरादी का इम्तिहान होता है क्योंकि यह एक हक़ीक़त है कि भूक और प्यास की शिद्दत से ख़्वाहिश और अक़्ल के दरमियान एक मअरका बरपा हो जाता है जिस से क़ुव्वत-ए-इरादी को तक़वीयत मिलती है।
जर्मनी आलिम जी हमार्डट ने क़ुव्वत-ए-इरादी पर एक किताब लिखी है, उन्होंने रोज़े को क़ुव्वत-ए-इरादी पैदा करने के लिए एक बुनियादी अमल क़रार दिया, इस के ज़रीए उभरने वाली ख़्वाहिशात पर क़ाबू हासिल होता है, इस की सालाना तकरार इरादे को कमज़ोरी से महफ़ूज़ करती है पुख़्तगी हासिल होती है, उन्होंने उन लोगों की मिसाल दी जिन्होंने सिगरेट नोशी छोड़ी, सब से पहले उन्हें पूरे दिन सिगरेट छोड़नी पड़ी, जिस से उन में इसे छोड़ने का जज़्बा पैदा हुआ, फिर उन्होंने हमेशा के लिए भी इसे छोड़ दिया।
रोज़ा और मुवाफ़क़त-ए-मलाइका
हज़रत अल्लामा नक़ी अली ख़ाँ कादरी बरेलवी अलैहिर्रहमा इरशाद फ़रमाते हैं: एक फ़ाएदा-ए-जलीला रोज़े में मुवाफ़क़त-ए-मलाइका है कि जिस तरह फ़रिश्ते खाने पीने से पाक हैं, उसी तरह रोज़ा दार भी खाना पीना तर्क करता है बल्कि दर हक़ीक़त यह बात उस से ज़्यादा है कि फ़रिश्ते अस्ल फ़ितरत में खाने पीने से मुस्तग़नी हैं, न उन को भूक लगे न प्यास सताए, बख़िलाफ़ मुसलमान के, बावजूद एहतियाज़ सिर्फ़ तामील-ए-हुक्म परवरदिगार खाना पीना तर्क करता है, गोया मज़मून "इन्नी अअलमु मा ला तअलमून" इस इबादत से आशकारा है कि अगर तुम अपनी तस्बीह व तक़्दीस पर नज़र रखते हो यह मुश्त-ए-ख़ाक बावजूद हज़ारों मवाने के हमारी तस्बीह व तक़्दीस बजा लाएँगे, अगर तुम अपनी इस्मत व पाकी को दस्तावेज़-ए-फ़ज़ीलत समझते हो, उन की तहारत पर नज़र करो कि बावजूद एहतियाज़ खाना पीना तर्क करते हैं और हमारी राह में कैसी कैसी मेहनत व मशक्क़त गवारा करते हैं, अगर फ़ुस्साक़ उन की ख़ूनरेज़ी करते हैं उश्शाक़ उन की आँखों से ख़ून-ए-दिल हमारे शौक़ में जारी रखते हैं।
[जवाहिरुल बयान, सफ़ा ६८ - ६७]
और एक दूसरी जगह यूँ रक़मतराज़ हैं: ऐ अज़ीज़! रोज़ा अस्ल अक्सर अख़लाक का है, ख़ौफ़-ए-परवरदिगार का रोज़े से ज़्यादा होता है, आदमी जब भूक प्यास की शिद्दत पाता है समझता है कि एक दिन की भूक प्यास में बावजूद इस के कि मकान साया दार और हवा सर्द और असबाब-ए-आराम मौजूद है, यह हाल हो गया, दोज़ख़ की भूक प्यास और मैं क़ियामत की तशन्नगी व गुरसनगी बा वजूद उन मसाइब के किस से उठाई जाएगी और रहम व रक़्क़त व सख़ावत ज़्यादा होती है।
मज़कूरह बाला हक़ाएक़ व शवाहिद से यह अमर बिलकुल वाज़ेह हो गया कि इस्लामी तालीमात व अहकामात इंसान के लिए दुनवी और उख़रवी दोनों एतिबार से बे-शुमार फ़वाइद व बरकात का सरचश्मा हैं, रोज़े ही को देख लें यह एक तरफ़ ख़ुशनूदी मौला के हुसूल का सबब है तो दूसरी तरफ़ इंसानी जिस्म को तिब्बी फ़ैज़ान से हमकिनार करता है, मौलाए करीम हमें रमज़ानुल मुबारक और रोज़े के फ़वाइद व बरकात से माला माल फ़रमाए, आमीन बिजाह सैय्यिदुल मुरसलीन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम।