अल्लाह तबारक व तआला के फ़ज़ल-ओ-करम से और दरूद-ओ-सलाम हमारे आक़ा-ए-दो जहाँ मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर, जिनकी मोहब्बत और सुन्नत हमारे दिलों की रौशनी है। यह तहरीर सहीह बुखारी की उस हदीस-ए-मुबारका की बुनियाद पर है, जिसे हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ी अल्लाह अन्हु ने रिवायत किया है। इस हदीस का ज़िक्र किताब अल-अज़ान, बाब अत-तशहुद फिल आख़िरा, जिल्द अव्वल, सफ़हा 115 पर मौजूद है। उम्मीद है कि यह तहक़ीक़ इस्लाह-ए-अमल और सुन्नत पर अमल की तरफ़ एक रहनुमाई होगी।
इस तहरीर का मक़सद उन लोगों के शुब्हात को दूर करना है, जो नमाज़ के तशहुद में "अस्सलामु अलैक अय्युहन्नबी" कहने या "या रसूल अल्लाह" कहकर नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पुकारने को ग़लत समझते हैं। इस हदीस-ए-मुबारिका से साबित है कि यह अमल न सिर्फ़ जाइज़ है, बल्कि सुन्नत-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम है।
शिर्क-ओ-बिदअत का इंकार
कुछ लोग दुरूद-ओ-सलाम को "शिर्क" या "बिदअत" कहते हैं, लेकिन यह हदीस साफ़ तौर पर बताती है कि यह अमल नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का बताया हुआ है और सुन्नत है।
अल्लाह तआला हमें इस तहरीर को समझने और इससे फ़ाइदा उठाने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत पर अमल करने की तौफीक बख़्शे। आमीन !
हदीस ए रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ी अल्लाह तआला अन्हु ने फ़रमाया कि हम (पहले) जब आनहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पीछे नमाज़ पढ़ा करते थे तो (तशहुद में) यूं कहते थे जिब्रील पर सलाम, मीकाइल पर सलाम, फुलाने पर सलाम, फुलाने पर सलाम फिर हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हमारी तरफ़ मुंह किया और फ़रमाया (तुम अल्लाह को क्या सलाम करते हो) अल्लाह का तो नाम ही खुद सलाम है जब तुम में से कोई नमाज़ पढ़े तो यूं कहे।
अत्तहिय्यातु लिल्लाहि वस्सलवातु वत्तय्यिबातु अस्सलामु अलैक अय्युहा अन्नबिय्यु व रहमतुल्लाहि व बरकातुहु अस्सलामु
अलैना व अला इबादिल्लाहि स्सालिहीन, जब तुम यह कहोगे तो तुम्हारा सलाम आसमान और ज़मीन में जहां कोई अल्लाह का बंदा है उस को पहुंच जाएगा।
(सहीह बुखारी, किताब अल-अज़ान, बाब अत-तशहुद फिल आखिरा, जिल्द अव्वल, सफ़हा 115, क़दीमी किताब खाना)
इस हदीस से मंदर्जा जैल फ़वाइद मालूम हुए।
1. तशहुद में आदमी अत-तहिय्यात बड़ी ख़ामोशी से पढ़ता है कि पास बैठने वाला भी मुश्किल से सुन पाता है लेकिन यहां मुक्तदी खामोशी से पढ़ रहे हैं और हुज़ूर इमामत के मुसल्ले पर उनकी आवाज़ों को सुन रहे हैं मालूम हुआ कि अल्लाह तआला ने अपने नबी के कानों को वह कुव्वत समाअत अता फ़रमाई है जो दूर व नज़दीक, क़रीब व बईद हल्की और तेज़ हर आवाज़ को सुन लेते हैं लिहाज़ा हिंदुस्तान से जो गुलाम या रसूल अल्लाह कह कर आपको पुकारेगा आप रौज़ा ए अक़दस में जलवा फ़रमा हो कर हमारी इस आवाज़ को भी ज़रूर सुन लेंगे। क्यों न हो जब कुरान के इरशाद के मुताबिक़ कई मील के फ़ासले से चींटी की आवाज़ हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम ने सुन ली थी तो फिर जो हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम के भी नबी हों उनके भी आक़ा और इमाम हों यानी इमामुल अंबिया सरवर ए दो जहां सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वह हमारी और अपने हर उम्मती की आवाज़ को क्यों नहीं सुन सकते।
2. अस्सलामु अलैक अय्युहन्नबी और अस्सलातु वस्सलामु अलैक या रसूल अल्लाह के एक मानी हैं और इस हदीस में खुद हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने उम्मतियों को नमाज़ के अंदर इसके पढ़ने का हुक्म दे रहे हैं मालूम हुआ कि अस्सलातु वस्सलामु अलैक या रसूल अल्लाह के अल्फ़ाज़ से हुज़ूर पर दुरूद भेजना और या रसूल अल्लाह कह कर हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पुकारना न शिर्क है और न बिदअत है बल्कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के फ़रमान पर अमल है।
3. हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के उम्मती सारे जहान में फैले हुए हैं और हर जगह नमाज़ें पढ़ी जा रही हैं और नमाज़ों में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अस्सलामु अलैक अय्युहन्नबी कह के पुकारा जा रहा है मालूम हुआ कि दूर व नज़दीक, हाज़िर व ग़ाइब का भी कोई फर्क नहीं हर शख़्स ख़्वाह हुज़ूर के रौज़े पर हो या रौज़ा अनवर से दूर हो हर जगह से या रसूल अल्लाह कह कर हुज़ूर को पुकार सकता है अगर या रसूल अल्लाह कहना शिर्क होता तो खुद हुज़ूर अपने तमाम उम्मतियों को नमाज़ जैसी अहम इबादत में अय्युहन्नबी कह कर नबी को पुकारने का कभी हुक्म नहीं देते।
4. अस्सलामु अलैक अय्युहन्नबी के मानी हैं ऐ नबी आप पर सलाम हो इन अल्फ़ाज़ के साथ सलाम उस को कहा जा सकता है जो सामने हाज़िर हो किसी ग़ाइब आदमी को इन अल्फ़ाज़ में कभी इस तरह सलाम नहीं कहा जा सकता इस से मालूम हुआ कि हुज़ूर का जो उम्मती जहां से भी हुज़ूर पर इन अल्फ़ाज़ में सलाम भेजता है तो हुज़ूर उसके पास होते हैं रौज़ा ए अनवर में जलवा फ़रमा होते हुए उस से क़रीब होते हैं यही मफ़हूम है हाज़िर व नाज़िर का।
दोस्तों: इस पूरी तहक़ीक़ से यह मालूम हुआ कि अस्सलामु अलैक अय्युहन्नबी 'या' या रसूल अल्लाह कहकर नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पुकारना और उन पर दुरूद-ओ-सलाम भेजना, इस्लामी तालीमात के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि ख़ुद रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सिखाई हुई सुन्नत है। यह अमल न तो शिर्क है और न ही बिदअत, बल्कि इस्लाम की अस्ल रूह और अक़ीदा-ए-तौहीद का ही एक ज़रूरी हिस्सा है।
वह एतराज़ भी दूर हो गया जो कुछ लोग कहते हैं कि या रसूल अल्लाह कहना शिर्क है। लेकिन सहीह बुखारी की इस हदीस से मालूम हुआ कि यह अमल यानि या रसूलअल्लाह कहना खुद नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सिखाया है। अगर यह ग़लत होता, तो वह कभी अपनी उम्मत को ऐसा करने का हुक्म न देते। तो मालूम हुआ या रसूल अल्लाह कहना शिर्क व बिदअत नहीं है बल्के जाईज़ है।
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