रमज़ानुल मुबारकः आख़िरत की नेकी और दुनियावी सेहत का ख़ज़ाना
माहे रमज़ान न सिर्फ़ रूहानी तरक्की और आख़िरत की भलाई का मौक़ा है, बल्कि यह हमारे जिस्मानी सेहत के लिए भी अल्लाह तआला की एक नेअमत है। इस पाक महीने में रोज़े रखने से सवाब के साथ-साथ बेमिसाल जिस्मानी फ़ायदे भी हासिल होते हैं, जिन्हें आज की साइंस भी मानती है।
रोज़े से सेहत मिलती है
माहे रमज़ानुल मुबारक जिस तरह हमारी आख़िरत को बेहतर बनाने के लिए बहुत अहम है, ऐसे ही दुनियवी एतिबार से भी हमारे लिए निहायत अहम है। वह इस तौर पर कि माहे रमज़ान के रोज़े रखने से सिर्फ सवाब ही नहीं मिलता, बल्कि बे-शुमार जिस्मानी फ़वाईद भी हमें हासिल होते हैं।
हदीस-ए-पाक की रौशनी में रोज़े के फ़ायदे
जैसा कि मुस्तफ़ा जाने रहमत, शमए बज़्मे हिदायत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद है: "सूमू तसिहहू, तुम रोज़ा रखो तंदुरुस्त हो जाओगे। (मुअज्जम औसत, 146/6)
इस हदीस-ए-पाक पर वो लोग गौर करें, जो बिला उम्र रोज़ा छोड़ देते हैं और न रखने के तरह-तरह के बहाने बनाते हैं कि भूखे रहने से मेरी तबीयत ख़राब हो जाती है। जब कि रब के महबूब, दानाए ग्यूब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम खुद इरशाद फ़रमा रहे हैं कि तुम अगर रोज़ा रखोगे तो सेहत मिल जाएगी।
आला हज़रत और रोज़े की बरकत
आला हज़रत, मुजद्दिदे दीन व मिल्लत इमाम अहमद रज़ा क़ादरी मुहद्दिस बरेलवी कुद्दिस सिर्रहु के रोज़ा रखने का वाक़िआ पढ़िए और रोज़ा की बरकत देखिए, आप अलैहिर्रहमह सख़्त बीमारी के आलम में भी रोज़ा नहीं छोड़ते थे। आप खुद इरशाद फ़रमाते हैं: अभी चंद साल हुए माहे रजब में हज़रत वालिदे माजिद (रईसुत मुतकल्लिमीन मौलाना नक़ी अली ख़ान) कुद्दिसु सिर्रुहुश्शरीफ़ ख़्वाब में तशरीफ़ लाए
और मुझसे फ़रमायाः अब की रमज़ान में मर्जे शदीद होगा रोज़ा न छोड़ना। वैसा ही हुआ और हर चंद तबीब वगैरा ने कहा (मगर) मैंने बिहमिदिल्लाह तआला रोज़ा न छोड़ा और उसी की बरकत ने
बिफ़ज़्लिहि तआला शिफ़ा दी कि हदीस में इरशाद हुआ हैः सूमू तसिहहू रोज़ा रखो तंदुरुस्त हो जाओगे। (मल्फूज़ात-ए-आला हज़रत)
वाक़ई, रोज़े रखने से सेहत मिलती है, दूसरी हदीस में प्यारे आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमायाः अल्लाह अज़्ज़ व जल ने बनी इस्राईल के एक नबी अलैहिस्सलाम की तरफ़ वही फ़रमाई: आप अपनी क़ौम को ख़बर दीजिए कि जो भी बन्दा मेरी रज़ा किलिए एक दिन का रोज़ा रखता है तो मैं उसके जिस्म को सेहत अता करने के साथ उसे अज़ीम अज्र भी दूँगा। (शुअबुल ईमान, ज 3, स 412)
दुनिया की दौड़ और इस्लामी तालीमात
आज के दौर में साइंटिफिक रिसर्च की तरफ़ दुनिया भाग रही है, हमारे समाज में ऐसे अफराद की काफी तादाद है जो अंग्रेज़ मुहव्रिक़क़ीन और साइंस दानों की रिसर्च से काफी मरगूब हैं, ऐसों की ख़िदमत में अर्ज है कि आज बहुत सारे ऐसे हक़ाइक़ हैं जिन की तलाश व जुस्तजू में साइंस दान हैरान व सर-गर्दा हैं, मगर मेरे प्यारे आक़ा मदीने वाले मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें चौदह सौ बरस पहले ही बयान फ़रमा दिया है। साइंस दानों की रिसर्च आज हो रही है कि भूखा प्यासा रहने और रोज़ा रखने से फायदा होता है कि नहीं? मगर मेरे आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस के फ़वाइद को सैकड़ों बरस पहले ही बता दिया है।
दोस्तों! कौन नहीं चाहता कि हम सेहतयाब रहें, बीमारियों से महफूज़ रहें, अपने मौला की खुशनूदी हासिल करें, दुनिया और आख़िरत को बेहतर बनाएँ, अगर हम ये चाहते हैं तो हमें चाहिए कि शैतान के वार को नाकाम बनाएँ, उस के बहकावे में न आएँ, रोज़ा रखें और अपनी दुनिया और आख़िरत को बेहतर बनाएँ।
रोज़ा दुनिया और आख़िरत दोनों की कामयाबी की चाबी
रोज़ा न सिर्फ़ गुनाहों से पाकी का ज़रिया है, बल्कि यह हमें बीमारियों से भी महफूज़ रखता है। शैतान के बहकावे में आकर रोज़ा छोड़ना अक़्लमंदी नहीं, बल्कि खुद अपने फ़ायदे से अनजान रहना है।
रमज़ान के रोजे रखने से हमें अल्लाह की रजा हासिल होती है, साथ-साथ रोज़े से सेहत भी मिलती है। जैसा के हदीस मुबारक से साबित है, और वैज्ञानिक शोथ और इतिहास की अज़ीम शख़्सियतों के तजुर्बात यही साबित करते हैं कि रोज़ा बदन और रूह दोनों को तंदुरुस्त बनाता है। इसलिए, रोज़े रखें और दोनों जहां की कामयाबी हासिल करें।
रोज़ा और जदीद साइंस
मज़हब-ए-इस्लाम ने तो चौदह सौ साल पहले ही रोज़े को सिहत के लिए निहायत फ़ायदेमंद क़रार दिया है, मगर इस बारे में दौरे हाज़िर के साइंसदानों का नज़रिया क्या है? इस से मुतअल्लिक़ वाक़िआत तो बहुत हैं लेकिन आप की ख़िदमत में सिर्फ तीन वाकिआत तहरीर करता हूँ, जिस से आप को पता चलेगा कि रोज़ा हज़ारों बीमारियों से हमें महफूज़ रखता है और हज़ारों बीमारियों से हमें निजात भी अता करता है। उन्हें गौर से पढ़ें और अल्लाह अज़्ज़ व जल का शुक्र अदा करें कि उस ने हमें कितना प्यारा दीन और उस में कैसे प्यारे अहकाम अता फरमाए हैं कि जिस में बंदगी के साथ हमारी ज़िंदगी भी है।
मूर पाल्डा का क़ौल
मूर पाल्डा जो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के मअरूफ प्रोफ़ेसर हैं, उन्होंने अपना वाक़िआ बयान किया के, मैंने इस्लामी उलूम का मुताला किया और जब रोज़े के बाब पर पहुँचा तो मैं चौंक पड़ा कि इस्लाम ने अपने मानने वालों को इतना अज़ीम फार्मूला दिया है। अगर इस्लाम अपने मानने वालों को और कुछ न देता, सिर्फ यही रोज़े का फ़ार्मूला ही देता तो फिर भी इस से बढ़ कर उन के पास और कोई नेअमत न होती। मैंने सोचा कि इस को आज़माना चाहिए। फिर मैंने रोज़े मुसलमानों के तर्ज पर रखना शुरू कर दिए, मैं अर्सा दराज़ से मअदे के वरम में मुब्तला था। कुछ दिनों के बाद ही मैंने महसूस किया कि इस में कमी वाक्रे हुई है। मैंने रोज़ों की मश्त जारी रखी, फिर मैंने अपने जिस्म में और कुछ तब्दीलियाँ महसूस कीं और कुछ ही अर्से बाद मैंने अपने जिस्म को नॉर्मल पाया, हत्ता कि मैंने एक महीने के बाद अपने अंदर इंक़िलाबी तब्दीली महसूस की। (रिसाला नई दुनिया)
हैरत अंगेज़ इन्किशाफात
हॉलैंड का पादरी ऐल्फ़ गाल कहता है: मैंने शूगर, दिल और मअदे के मरीज़ों को मुसलसल 30 दिन रोज़े रखवाए, नतीजतन शूगर वालों की शूगर कंट्रोल हो गई, दिल के मरीज़ों की घबराहट और साँस का फूलना कम हुआ और मअदे के मरीज़ों को सब से ज़्यादा फायदा हुआ।
एक अंग्रेज़ माहिरे नफ्सियात सिग्मंड फ्राइड का बयान है: रोज़े से जिस्मानी खिचाव, ज़हनी डिप्रेशन और नसियाती अमराज़ का खात्मा होता है। (फ़ैज़ान ए रमज़ान,)
रोज़ा न सिर्फ़ इस्लामी तालीमात का अहम हिस्सा है, बल्कि यह दुनियावी और रूहानी सेहत का भी बेमिसाल ज़रिया है। चौदह सौ साल पहले हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः 'सूमू तसिहहू' (रोज़ा रखो, तंदुरुस्त हो जाओ)। आज की साइंस भी इस बात को कुबूल करती है कि रोज़ा डायबिटीज़, दिल की बीमारियों, मानसिक तनाव और पाचन तंत्र के अमराज़ को दूर करने में कारगर है।
ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफ़ेसर मूर पाल्डा, से लेकर, हॉलैंड के पादरी ऐल्फ गाल" तक, गैर-मुस्लिम विद्वानों ने भी रोज़े के फायदों को आज़माकर माना है। यहाँ तक कि 'सिग्मंड फ्राइड' जैसे मशहूर नसियातदान ने भी रोज़े को डिप्रेशन और ज़हनी खिचाव का इलाज बताया।
- रोज़ा अल्लाह की रज़ा का जरिया होने के साथ-साथ जिस्मानी रूहानी इलाज भी है।
- लोगों को रोज़े से 'तबीयत खराब होने का डर है, उन्हें इस्लामी हुक्म और हदीस को पेशे नज़र रखना चाहिए और दुनिया के वैज्ञानिकों के तजुर्बात भी देखना चाहिए।
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा क़ादरी रहमतुल्लाह अलैह जैसे अज़ीम आलिम भी गंभीर बीमारी में रोज़ा न छोड़कर यही साबित करते हैं कि "रोज़े की बरकत में शिफा है।
"आख़िरी बात"
अल्लाह तआला ने रमज़ान के रोज़ों को हमारे लिए "दो जहाँ की कामयाबी" का ज़रिया बनाया है। इसे सिर्फ़ "भूखा-प्यासा रहना" न समझें, बल्कि इसकी हिक्मत और फायदों पर गौर करें। शैतान के बहकावे से बचें, रोज़े रखें, और इस नेअमत का शुक्र अदा करते हुए सेहत व सवाब दोनों हासिल करें!
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