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Nabi kareem ki nigahe paak se koi chiz poshida nahin | बुखारी शरीफ की रिवायत से जानिये | हुजूर की ख़ास ख़ूबियाँ


इस्लामी तालीमात में नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़ासियतें एक अहम मौज़ू हैं। हज़रत अबू हुरैरा रज़ी अल्लाहु अन्हु से मनकूल सहीह बुखारी की इस हदीस-ए-मुबारक में नबी करीम की निगाहें मुबारक, और ख़ुशूओ-ए-दिल को देखना, और उनकी निराली शान के बारे में बताया गया है। इस आर्टिकल में जानिए कैसे यह हदीस मुसलमानों के अक़ीदे और अमल को मज़बूत करती है! 

हदीस-ए-नबवी: नबी करीम की निगाहों का वाकिया

हज़रत अबू हुरैरा रज़ी अल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया क्या तुम समझते हो कि मेरा मुँह इधर क़िबला की तरफ़ है। ख़ुदा की क़सम तुम्हारा रुकूओ और तुम्हारा खुशूओ मुझ पर कुछ पोशीदा नहीं और मैं तुम्हें अपनी पीठ के पीछे से भी देखता हूँ। 
(सहीह बुखारी, किताब अल-अज़ान, बाब अल-ख़ुशूओ फ़ी अस-सलाह, जिल्द सफ़्हा 102, क़दीमी कुतुब ख़ाना।) 
इस हदीस मुबारक से कुछ फ़वाइद मालूम हुए। 

नबी करीम हम जैसे नहीं आपकी शान बहुत आला है। 

1. हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपने जैसा बशर न समझो और न कहो। हुज़ूर की कोई चीज़ भी हम जैसी नहीं, आपकी हर चीज़ निराली है। देखो हमारी आँखें सिर्फ़ आगे को देखती हैं, पीछे क्या हो रहा है उसे नहीं देख सकतीं। लेकिन हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आँखें जिस तरह आगे देखती हैं, उसी तरह पीछे भी देख लेती हैं। ये तो वह आँखें हैं जिन्होंने रब का दीदार किया है, भला उनकी बराबरी कौन कर सकता है। 

नबी की निगाहें आगे-पीछे सब देखती हैं। 

2. अगर तुम दीवार के पीछे नहीं देख सकते तो ये मत कहो कि नबी पीछे नहीं देख सकते (मआज़ अल्लाह)। उन्हें अल्लाह ने वह ताक़तें अता फ़रमाई हैं जो हमें अता नहीं फ़रमाई। अगर हमें किसी चीज़ का इल्म नहीं और कोई शय हमसे ग़ैब में है तो इसका मतलब ये नहीं कि हुज़ूर की निगाहों से भी ओझल है। बल्कि जहाँ हमारी निगाह नहीं पहुँच सकती, मुस्तफ़ा अलैहिस्सलाम की निगाह वहाँ भी पहुँच जाती है और कोई शय हुज़ूर अलैहिस्सलाम की निगाहों से ओझल और मख़फ़ी नहीं। 

दिल की कैफियत को देखना।

3. ख़ुशूओ व ख़ुज़ूओ दिल की एक कैफ़ियत का नाम है जिस तक आम इंसान की निगाह नहीं पहुँच सकती। नमाज़ पढ़ते वक़्त आदमी के दिल की क्या कैफ़ियत है, इसका कोई अंदाज़ा नहीं कर सकता। लेकिन अल्लाह तआला ने अपने महबूब को इतनी वसी निगाह अता फ़रमाई है कि जो दिल के हाल और क़ल्ब की कैफ़ियत तक को देख लेती है। इसलिए हमारा अक़ीदा है कि हम हुज़ूर की बारगाह में दिल से जो फ़रयाद करते हैं, हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उसे जान भी लेते हैं और फ़रयाद-रसी भी फ़रमाते हैं। 
फ़रयाद-ए-उम्मती जो करे हाल-ए-ज़ार में 
मुमकिन नहीं कि खैर-ए-बशर को ख़बर न हो 

दुनिया की कोई भी चीज़ नबी की निगाह से पोशीदा नहीं। 

और ये भी साबित हो गया कि ख़ुशूओ व ख़ुज़ूओ जैसी ख़ुफ़िया चीज़ और दिल की कैफ़ियत जब नबी की निगाहों से पोशीदा नहीं, तो फिर दुनिया की और कोई शय नबी की निगाह से कब मख़फ़ी रह सकती है। 
इस हदीस-ए-पाक से साबित हुआ कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की निगाह मुबारक से कोई चीज़ पोशीदा नहीं, बल्कि रब्बुल आलमीन की अता से, चाहे वो इबादत में खुशूओ हो या गैब की कोई बात, नबी की निगाह हर चीज़ को देख लेती है। 

एक हदीस और पढ़ें और ईमान ताज़ा करें 

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्होंने कहा कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने-ए-मुक़द्दस में सूरज ग्रहण हुआ। आपने नमाज़-ए-खुसूफ पढ़ी। सहाबा ने अर्ज़ किया, 'या रसूलल्लाह। हमने देखा कि आपने नमाज़ में अपनी जगह पर रह के कोई चीज़ पकड़ी, फिर हमने देखा कि आप पीछे हटे। आपने फरमाया 'मैंने जन्नत को देखा, तो उसमें से ख़ोशा लेने लगा। अगर मैं ले लेता, तो जब तक दुनिया क़ायम है, तुम उसमें से खाते रहते। 
(सहीह बुखारी, किताबुल अज़ान, बाब रफञ्जुल बसर इलाल इमाम, जिल्द-ए-अव्वल, सफ़्हा 103, क़दीमी किताबखाना) 

इस हदीस-ए-मुबारक से मुन्दर्जा ज़ेल कुछ फ़वाइद मालूम हुए 

1. या रसूलल्लाह कहना बुरी बात या शिर्क व बिदअत नहीं, बल्कि सहाबा का तरीक़ा और उनकी सुन्नत है। अगर "या रसूलल्लाह" कहना शिर्क होता तो सहाबा कभी न कहते और न ही हुज़ूर उन्हें कहने की इजाज़त देते। 
2. चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण हो तो उस वक़्त नमाज़-ए-कुसूफ़ व नमाज़-ए-खुसूफ़ पढ़नी चाहिए, क्योंकि यह हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत है और रब के गज़ब से बचने का एक तरीक़ा है। 
3. जब नबी मदीना मुनव्वरा में खड़े होकर जन्नत को देख सकते हैं, जो सातों आसमानों से ऊपर है, तो मदीना मुनव्वरा में जलवागर होकर हिंदुस्तान में रहने वाले हम गुलामों को क्यों नहीं देख सकते? उनका गुलाम आलम के जिस कोने में भी हो, और वहाँ से आप को पुकारे तो आप उसे देखते भी हैं और उसकी फ़रयाद सुनते भी हैं। 
4. मदीना में रहकर जब आपका दस्त-ए-मुबारक सातों आसमानों के ऊपर जन्नत के बागों तक पहुँच सकता है, तो क्या वह हाथ हम मुश्किल में फंसे हुए गुलामों की मदद को नहीं पहुँच सकता? हुज़ूर का उम्मती जहाँ से भी फ़रयाद करेगा, यह हाथ वहीं पहुँचकर उसकी फ़रयाद-रसी करेगा और उसी वक़्त उसकी मुश्किल आसान कर देगा। क्योंकि यह मामूली हाथ नहीं, वह हाथ है जिसे अल्लाह तआला ने कुरआन में अपना हाथ फरमाया है। जब यह खुदा का हाथ हुआ, तो फिर इसकी ताक़त से कोई चीज़ कब बाहर रह सकती है? इसे उलमा की इस्तिलाह में "हाज़िर-ओ-नाज़िर" कहते हैं कि आलम की हर चीज़ को हुज़ूर देख भी रहे हैं और उस पर तसर्रुफ़ भी फरमा सकते हैं।
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