दोस्तों: यह तहरीर मौजूदा दौर के उन फित्नों और हालात पर मबनी है जिनहोंने हमारी क़ौम-ओ-मिल्लत की जड़ों को हिलाने की कोशिश की है। इस में इन मसाइल के अस्बाब और आमिल का तजज़िया करने के साथ-साथ इन के हल और तदारुक के लिए रहनुमा उसूल भी पेश किए गए हैं। यह पैग़ाम क़ौम-ओ-मिल्लत की बेटियों की हिफ़ाज़त और इज़्ज़त-ओ-अस्मत के तहफ़्फ़ुज़ के लिए है। इस के ज़रीए हर फ़र्द को अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास दिलाते हुए अपनी अपनी जिम्मेदारियों को बहुसने खूबी अदा करने तरगीब दी गई है। अल्लाह तआला से दुआ है कि वो हमारी क़ौम को हर फित्ने से महफ़ूज़ रखे और हमें इन मुश्किलात में अपनी ज़िम्मेदारियों को समझने और उनको अदा करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए। आमीन।
अऊज़ु बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
क़ुरान में इरशादे बारी तआला है,
तरजुमा: "तुम में जो कोई अपने दीन से मुरतद हो जाए फिर काफ़िर ही मर जाए, तो उन लोगों के तमाम आमाल दुनिया और आख़िरत में बरबाद हो गए और वे दोज़ख वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहेंगे।"
दोस्तों:
मौजूदा वक़्त में उम्मत-ए-मुस्लिमा जहां तालीमी, समाजी, मआशी और मुल्की मसाइल और चैलेंजेस से दो-चार है, वहीं कई तरह के शरूर व फ़ितन से भी नबरद-आज़मा है। मसाइल की इस क़दर बहुतात व कसरत है कि कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेते। और रहे शरूर व फ़ितन, तो वे हर आए दिन नई सूरतों और मुख्तलिफ़ शकलों में नमूदार हो रहे हैं। ये सादा-लौह लोगों के साथ-साथ अब तो तालीम-याफ़्ता और तरक़्क़ी-याफ़्ता लोगों को भी अपने दाम-ए-तज़वीर में फंसा रहे हैं।
इनमें खास तौर से काबिल-ए-ज़िक्र फितना-ए-इरतिदाद है, जो इन दिनों बहुत ज़्यादा मुस्तइ'द व सरगर्म-ए-अमल है। यह मुकम्मल तौर पर अपने बाल व पर फैला चुका है और अब तक हज़ारों नहीं बल्कि लाखों लोगों को अपनी लपेट में ले चुका है और अभी भी हज़ारों लोग इसके दहाने पर हैं। खास तौर से मुस्लिम बच्चियों और औरतों को झूठी मोहब्बत के जाल में फंसाकर न सिर्फ़ उनका ईमान व अकीदा तबाह व बर्बाद किया जा रहा है बल्कि उनकी इस्मत व नामूस को भी तार-तार किया जा रहा है, जो हमारे लिए बहुत ही ज़्यादा फ़िक्र व तशवीश का बाइस है। दोस्तों!
मुल्क के हालात का ताइराना जायज़ा लेने से ये बात निहायत ही एतमाद व वुसूक के साथ कही जा सकती है कि बीसवीं सदी के अवाइल और उसके निस्फ में उठने वाली ”शुद्धि तहरीक“ने फिर से सर उठाया है या फिर उसी की कोख से इस ”फ़ितना-ए-इरतिदाद“ का नाजायज़ जनम हुआ है, जो उसी के बातिल अफ़्कार व ख़यालात और शिद्दत पसंद नज़रियात को अपनाए हुए है।
अब ज़रूरत है कि इस फ़ितना की सरकूबी के लिए इल्म व दानिशवर हज़रात कमर बस्ता हो जाएं और जिस तरह बीसवीं सदी के निस्फ में शहज़ादा आला हज़रत हज़रत मुफ़्ती-ए-आज़म हिंद अलैहिर्रहमा और दीगर उलेमा व मशाइख़-ए-अहल-ए-सुन्नत ने ”शुद्धि तहरीक“ को अपनी दावत व तबलीग, हिकमत व मौइज़त और क़लम व क़र्तास के ज़रिये अवाम व ख़वास के सामने तश्त-ए-अज़ बाम और व शिगाफ़ किया था और उसके इस्तेहाल व इंसिदाद में नाक़ाबिल-ए-फ़रामोश कारनामा अंजाम दिया था, आज हमें भी अपने अकाबिर व असलाफ़ के तरीक-ए-कार और उनके नक़्श-ए-राह पर चलते हुए इस फ़ितना-ए-अज़ीम के खात्मे के लिए जद्द व जहद और तग व दू करते रहना चाहिए।
ख़याल रहे कि ये सब खेल और तमाशा इस्लाम को पै दर पै नुक़सान पहुंचाने और उसकी जड़ों को कमज़ोर करने के लिए रचा गया है, जिसके लिए उन्होंने “बिन्त-ए-हव्वा” को निशाना बनाया है, ताकि वह उसके ज़रिये इस्लाम को दुनिया भर में बदनाम करके उसकी शबीह को दाग़दार कर सकें। ऐसे फ़ितनों और साज़िशों के दौर में अब हमारी ज़िम्मेदारियां मजीद बढ़ जाती हैं कि हम दिफ़ा व तहफ़्फ़ुज़-ए-इस्लाम के लिए बाहम शीरो शकर होकर उठ खड़े हों और अपनी बहन बेटियों को इन मंसूबा-बंद और घिनौनी साज़िशों का शिकार होने से बचाएं।
क्योंकि बहन बेटियां ख़ानदान की ज़ीनत, घरों की रौनक और वालदैन की आंखों की ठंडक होती हैं, उन्हें ग़ैरों का लुक़्मा-ए-हवस न बनने दें।
इस्लाम में औरत का मक़ाम-ओ-मर्तबा
मुहतरम हज़रात! याद रखें कि इस्लाम में औरत को एक अहम और बुलंद मक़ाम हासिल है, बल्के क़ुरआन-ओ-अहादीस इसके फ़ज़ाइल-ओ-मरातिब के शाहिद-ए-अदल हैं। तवालुद-ओ-तनासुल और अफ़ज़ाइश-ए-नस्ल के लामतना ही सिलसिले का इन्हिसार भी इसी पर मर्कूज़ है। दुनिया में यही एक ऐसी हस्ती है जिसके वजूद से क़ौम-ओ-नस्ल का दावा-ओ-बक़ा है। ये महज़ मर्दाना जिन्सी इसतेहा की तस्कीन ही नहीं बल्के फ़रोग़-ए-इंसानियत का अज़ीम सबब भी है। इसी लिए हर लिहाज़ से औरत का मक़ाम-ओ-मर्तबा निहायत ही बुलंद-ओ-बाला है, जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता।
अल्लाह तआ'ला ने इसे अज़-रू-ए-मक़ाम मुख़्तलिफ़ शक्लें अता फ़रमाई हैं। कहीं वो माँ, दादी, नानी, फूफी, ख़ाला और चाची का किरदार अदा करती है तो वहीं बहन, बेटी, बहू और सास का भी रूप धारण करती है। इस हमाह जहत किरदार की मलिका को रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने "अल-जन्नतु तहत अक़दाम अल-उम्महात" का तमग़ा-ए-इम्तियाज़ अता फ़रमाकर इसे एक अज़ीम मक़ाम-ओ-मर्तबा का हक़दार बनाया।
इस के अलावा इसे यकसाँ हुक़ूक़-ओ-मुराआत भी फ़राहम कीं। ये तो इस्लाम है, जिसने औरत को इतने मरातिब-ओ-मनासिब अता किए हैं, वरना तो दुनिया के दीगर मज़ाहिब में इसे यक्सर तौर पर महरूम रखा गया है। इन सब के बावजूद अब अगर कोई मुस्लिम ख़ातून या बच्ची दामन-ए-इस्लाम को छोड़ कर ग़ैरों के चंगुल में गई तो गोया उसने अपने आप से नाइंसाफ़ी की, अपने मक़ाम-ओ-मर्तबा का पास-ओ-लिहाज़ नहीं रखा और वो अपने दीन-ए-क़वीम से फिर कर मुरतदा हो गई, जिसका न सिर्फ़ बहुत बड़ा गुनाह है, बल्के इस्लाम में इसकी बहुत बड़ी सज़ा भी है।
इरतिदाद का हुक्म क़ुरआन-ओ-हदीस की रोशनी में
इस हवाले से यहां चंद आयात-ए-क़ुरआनिया व अहादीस-ए-करीमा मुलाहिज़ा फ़रमाएं और अपने निहां ख़ाना-ए-दिल में उन्हें जां ग़ुज़ीं करने की सई व कोशिश करें।
अल्लाह तबारक व तआ'ला इरशाद फ़रमाता है:
तरजुमा: "और जो शख्स इस्लाम के अलावा किसी दूसरे दीन-ओ-मज़हब को अपनाएगा, अल्लाह के यहां उसे क़बूलियत नसीब नहीं होगी और वो आखिरत में ख़सारे में होगा।"
दूसरे मक़ाम पर फ़रमान-ए-बारी तआ'ला है:
तरजुमा: "तुम में जो कोई अपने दीन से मुरतद हो जाए फिर काफिर ही मर जाए तो उन लोगों के तमाम आमाल दुनिया-ओ-आखिरत में बर्बाद हो गए और वो दोज़ख़ वाले हैं और वो इसमें हमेशा रहेंगे।"
हदीस-ए-शरीफ:
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमाया:
तरजुमा: "जिसने अपना दीन (इस्लाम) बदल दिया, तो उसे क़त्ल कर दो।"
(सहीह बुखारी, तिर्मिज़ी, अबू दाऊद, इब्न माजा, मुसनद अहमद)
दूसरी जगह है:
हज़रत ज़ैद बिन असलम रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमाया:
तरजुमा: "जिसने अपना दीन (इस्लाम) बदल दिया तो उसकी गर्दन उड़ा दो।"
(मोअत्ता इमाम मालिक)
इनके अलावा और भी बेशतर अहकामात क़ुरआन-ओ-अहादीस में मौजूद हैं, जिनसे इरतिदाद की राह पर चलने वालों के लिए सख्त वईदें बयान की गई हैं। ये तो हुक्म-ए-अहादीस है। मुरतद और मुरतदा के तौबा-व-रुजू और क़त्ल-व-सज़ा के सिलसिले में उलमा, आइम्मा, फुकहा और मुहद्देसीन-ए-इस्लाम के मुख्तलिफ़ अक़वाल व मवाकिफ़ इस पर मुस्तज़ाद हैं। “बहर हाल”! यह तो आफ़ताब-ए-नीम रोज़ की तरह वाज़ेह है कि इस्लाम से फिर जाने से दुनिया व आख़िरत की कितनी तबाही व बर्बादी यक़ीनी है। बस क़ौम की बच्चियों और औरतों को चाहिए कि वो अपने मुक़द्दस दीन पर सख़्ती के साथ क़ायम व दायम रहें, ग़ैरों के मकर-ओ-फ़रेब में आकर अपने दीन-ओ-मज़हब और अपनी इज़्ज़त-ओ-ग़ैरत का सौदा न करें। जहां भी जाएं या तालीम हासिल करें, तो शरियत के हदूद में रहें, हमेशा अपने वालिदैन और सरपरस्त हज़रात की तरबियत व निगहदाश्त में रहें। ख़ास तौर से इस्लामी तालीमात व अहकामात को अपने ऊपर बोझ न समझें, बल्कि उन्हें अपने लिए हिर्ज़-ए-जान बनाएं। इंशा अल्लाह तआ'ला अपना दीन भी सलामत रहेगा और इज़्ज़त व आबरू भी महफ़ूज़ रहेगी। अल्लाह तआ'ला बनात-ए-हव्वा की इज़्ज़त-ओ-नामूस और उनके ईमान व अक़ाएद की हिफ़ाज़त-ओ-सयानत फ़रमाए। आमीन।
अब हम यहां इस हवाले से ज़िम्मेदारान-ए-क़ौम व मिल्लत बिलख़ुसूस ख़वातीन-ए-इस्लाम की ख़िदमत में चंद मआरुज़ात पेश करना चाहेंगे, जिन पर अमल दरआमद की सूरत में मुमकिन है कि बहुत से मसाइल का तदारुक व हल निकल आए।
ज़िम्मेदारान से चंद मआरुज़ात
1. ज़िम्मेदारान-ए-क़ौम व मिल्लत को इस फितना के अस्बाब व आवामिल पर ग़ौर व ख़ौज़ करना चाहिए, जिससे इस फितना की जड़ों तक बा-आसानी पहुंचा जा सके।
2. फितना-ए-इरतिदाद के ख़िलाफ़ मुल्क गीर या इलाक़ाई सतह पर एक कामयाब मुहिम चलाना चाहिए, जिससे मुस्लिम समाज में हत्ता अल-वुसअ बेदारी लाई जा सके।
3. जो मुस्लिम बच्चियां इस फितना का शिकार हो चुकी हैं या इसकी ज़द पर हैं, उस इलाक़े के उलमा, मशाइख़ और बा-असर शख़्सियात को फ़ौरन उनके घरों पर जाकर उनकी बेहतर इस्लाह व तफ़हीम करनी चाहिए और उन्हें ये बावर कराना चाहिए कि वो जो कर रही हैं, वो जहां समाज व मुआशरा की हैसियत से ग़लत है, वहीं इस्लाम व शरीअत के भी मुनाफ़ी है। उनकी इस ग़लत हरकत से उनके ख़ानदान के अफ़राद की समाज व मुआशरा में सर-ए-आम ज़िल्लत व रूसवाई तो होगी, साथ ही साथ उनकी आख़िरत भी बर्बाद हो जाएगी।
4. मुल्क गीर, रियासती और ज़िलाई सतह पर ऐसी कमेटियां तशकील दी जाएं, जो इन तमाम हालात पर गहरी नज़र रख सकें और इनका तदारुक व हल भी निकाल सकें।
5. जो बच्चियां असरी इदारों में पढ़ती हैं, वालिदैन को चाहिए कि उनके हर उठने वाले क़दम पर गहरी नज़र रखें और कोशिश करें कि साया की तरह हमेशा उनके साथ रहें। (इस्लाम बच्चियों की असरी तालीम का मुख़ालिफ़ नहीं है। उन्हें हर तरह की तालीम दी जाए, लेकिन तालीम के नाम पर जो बेहयाइयां, बेहूदगियां और सर-ए-आम बुराइयां अंजाम पा रही हैं, असल में उनका मुख़ालिफ़ है।)
6. जो बच्चियां शादी की उम्र को पहुंच जाएं, तो फ़ौरन उनकी शादी का इंतज़ाम कर लिया जाए। याद रहे कि ताख़ीर की सूरत में इस तरह के फितना ख़ेज़ हालात पेश आ सकते हैं, लिहाज़ा इस बात का बख़ूबी ख़याल रखें।
7. समाज से जबरी जहेज़ की लानत और शादियों में मनमानी मुतालिबात को यकसर तौर पर ख़त्म करें, क्योंकि बच्चियों का ग़ैरों के साथ भागकर शादियां करने का एक सबब ये भी है। इस तरह करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त इक़दामात किए जाएं, जो बाद वालों के लिए दर्स-ए-इबरत बनें।
8. वालिदैन और सरपरस्त हज़रात को चाहिए कि वो अपनी औलाद की तरबियत व निगहदाश्त पर अपनी तमामतर तवज्जो मर्कूज़ रखें। अगर उनकी बेहतर माहौल में तरबियत रही, तो वो ज़िंदगी में कभी भी इस तरह की ईमान और अख़लाक़ सोज़ हरकतें अंजाम नहीं दे सकते।
“बच्चियों के हाथों में स्मार्ट या एंड्रॉइड मोबाइल फोन थमाने का मतलब उन्हें खुद गुनाहों की तरफ़ आमादा करना है।”
आम तौर पर यह देखने में आया है कि बच्चियों के पास मोबाइल आने से प्यार व मोहब्बत का एक लंबा सिलसिला शुरू हो जाता है और फिर देर रात तक चैटिंग पर चैटिंग होती रहती है, जिससे फ़रार की राहें और भी आसान हो जाती हैं। लिहाज़ा इससे परहेज़ करें। अगर मोबाइल देना इतना ही ज़रूरी हो तो हर वक्त उनके मोबाइल को चेक करते रहें।
1. तालीम ग़ाहों या किसी भी तरह की तकरीबों में ग़ैरों के साथ मिलने जुलने और बात चीत से सख्ती से मना करें क्योंकि यहीं से फ़ितना की शुरुआत होती है और फिर रफ्ता रफ्ता इरतिदाद का दरवाज़ा खुलता जाता है, जो आगे चलकर वबाल-ए-जान व ईमान बन जाता है।
2. ‘जो बच्चियाँ तालीम याफ्ता हैं और वह कंपनियों में जॉब करने की ख्वाहां हैं’
मुस्लिम मुआशरा ही में उनकी अहलियत व काबिलियत के मुताबिक़ कुछ ऐसे काम दिए जाएं, जिन्हें वो अपनी हया व इफ़्फ़त की हिफ़ाज़त करते हुए अंजाम दे सकें। मसलन:
- किसी मकतब, मदरसा या स्कूल में तदरीसी फ़राइज़ की अंजाम दही।
- मोहल्ला या इलाक़ा के बच्चों को ट्यूशन या तरबियत देना।
- कम्प्यूटराइज़ कामों के लिए उन्हें मौक़े फराहम करना वगैरह।
अगर तालीमयाफ़्ता बच्चियों को इस तरह के मौक़े व ज़राए फराहम किए जाएं तो मुमकिन है कि वो कंपनियों में जाकर ग़ैर मर्दों के शाना बशाना जॉब करने से परहेज़ करें।
वाल्दैन और सरपरस्त हज़रात से गुज़ारिश
अदब के साथ वालिदैन और सरपरस्त हज़रात से गुज़ारिश है कि वो अपनी बच्चियों को ख़ास तौर से वो कोर्सेज़ और तालीम दिलवाएं, जिन्हें करके वो हया और पाकदामनी के साथ अपना गुज़र-बसर आसानी से कर सकें और मुस्लिम समाज व मुआशरा की तरवीज व तरक़्क़ी में अपना अहम किरदार अदा कर सकें।
‘चंद अहम व मुफीद कोर्सेज़ और स्किल्स’
यहां हम ख़वातीन और बच्चियों के लिए चंद अहम और मुफीद कोर्सेज़ और स्किल्स का ज़िक्र कर रहे हैं, जिन्हें करके वो कामयाब और खुशहाल ज़िंदगी गुज़ार सकती हैं:
1. मेडीकल डॉक्टर और नर्स कोर्स:
ख़वातीन डॉक्टर न होने की वजह से औरतों का मर्द डॉक्टरों के पास इलाज के लिए जाना उनकी बदकिस्मती बन गई है। लिहाज़ा मुस्लिम बच्चियां अगर आला तालीम हासिल करना चाहती हैं तो वो "बी.यू.एम.एस., बी.ए.एम.एस., बी.डी.एस., एम.बी.बी.एस." और दीगर मेडिकल कोर्सेज़ में ज़ोर आज़माई करें, ताकि उनके डॉक्टर या नर्स बनने से मुस्लिम ख़वातीन को ग़ैरों के पास जाने की क़तअन हाजत न पड़े। इस से वो मुआशी तौर पर मुस्तहकम भी होंगी और उनसे समाज व मुआशरा की बहुत सारी ज़रूरतें भी पूरी होंगी।
2. आलिमा कोर्स:
आलिमा बनने का मतलब, कुरान व हदीस और दीन की मुकम्मल तालीम हासिल करना है। इस कोर्स को करने के बाद वो बच्ची न कभी दीन से बेगाना हो सकती है और न ही दूसरों को दीन से भटकने दे सकती है। बाद अज़ां वो किसी मकतब या लड़कियों के दीनि इदारे में पढ़ाकर अपनी आइली ज़रूरतों को पूरा कर सकती है और अपने शौहर अज़ीज़ का हाथ भी बंटा सकती है।
3. टीचिंग कोर्स:
जो बच्चियां इंटरमीडिएट या ग्रेजुएशन कर चुकी हैं, वो डी.एड., बी.एड., एम.ए., एम.फिल. और पी.एच.डी. की डिग्रियां हासिल करके इस कम और नाख़्वानदा मुआशरे में आगे बढ़ सकती हैं। साथ ही, बा-हिजाब रहकर तदरीसी फ़राइज़ ब-हसन-ओ-खूबी अंजाम दें तो उससे अच्छी-खासी माहाना आमदनी हासिल कर अपने अहल-ए-आयाल की किफालत व परवरिश बेहतर तरीके से कर सकती हैं।
3) लीडिज़ टेलरिंग कोर्स
ख़वातीन और बच्चियों के लिए ये बहुत ही आसान और मुफ़ीद कोर्स है, जिसे वो चंद महीनों की कोशिशों और मेहनतों के नतीजे में सीख सकती हैं और जहाँ कहीं रहें घर बैठे ये काम कर सकती हैं।
5) महंदी कोर्स
इम्तेदाद-ए-ज़माना के साथ-साथ औरतों के बनाओ-सिंगार में भी बहुत ज़्यादा तब्दीलियाँ वाक़े हुई हैं, जिनमें से एक महंदी है। आजकल मुख़्तलिफ़ और नौ-ब-नौ की डिज़ाइन बनाई जा रही हैं और इसके लिए बा़ज़ाबता कोर्सेस भी कराए जा रहे हैं। मुस्लिम बच्चियाँ और औरतें ये हुनर सीखकर अपने आपको बापर्दा रहकर बर-सर-रोज़गार बना सकती हैं।
6) क्लॉथ एम्ब्रॉयडरी कोर्स
क्लॉथ एम्ब्रॉयडरी का आज बहुत ज़्यादा चलन आम है। मार्केट में इसकी बहुत ज़्यादा डिमांड है। अगर मुस्लिम ख़वातीन ये स्किल सीख जाएँ तो चहार-दीवारी के अंदर रहकर भी वो अच्छा-ख़ासा पैसा कमा सकती हैं और अपने अफ़राद-ए-ख़ाना के साथ एक ख़ुशगवार और आसूदा ज़िंदगी गुज़ार सकती हैं।
7) ग्राफिक डिज़ाइनिंग व ऑनलाइन सर्विसेस कोर्स
ये तो कंप्यूटर और टेक्नोलॉजी का ही दौर है, इससे कौन इंकार कर सकता है। ये कोर्सेस करके मुस्लिम ख़वातीन घर बैठे अच्छा बड़ा बिज़नेस शुरू कर सकती हैं और ऑफ़लाइन व ऑनलाइन पैसा कमाकर अपनी घरेलू हाजात व ज़रूरियात की तकमील कर सकती हैं।
ये चंद स्किल्स हमने उन ख़वातीन के लिए ज़िक्र की हैं जो अजदवाजी ज़िंदगी में आने के बाद मआशी तौर पर ख़ुद कुछ करना और अपने रफ़ीक-ए-हयात का सहारा बनना चाहती हैं। हमने बहुत सी ख़वातीन को इन मुतज़क्किरा बाला सतूर के मुताबिक़ पाया है कि वो इन तमाम मैदानों और शोबों में शरीअत व सुन्नत की पासदारी करते हुए दरस-ओ-तदरीस, सनअत-ओ-हिरफ़त और दीगर कारोबारी उमूर के फ़राइज़ सर-अंजाम दे रही हैं।
दोस्तों!
हमने अपनी इस मुख़्तसर सी तक़रीर-ओ-तहरीर में मुल्क के फ़ित्नाख़ेज़ हालात पर चंद अहम बातें रखने की जुर्रत-ओ-सई की और इन दरपेश हालात-ओ-मसाइल के असबाब-ओ-आमिल के साथ-साथ इनका तदारुक-ओ-हल भी पेश किया। उम्मीद-ए-वासिक है कि इन्हें संजीदगी से लिया जाएगा और मुल्क भर में अग़्यार की शरारतों और फ़ित्नों को नाकाम बनाते हुए क़ौम-ओ-मिल्लत की बेटियों की इज़्ज़त-ओ-अस्मत का तहफ़्फ़ुज़ किया जाएगा। इसी तरह क़ौम का हर फ़र्द इस सिलसिले में अपनी ज़िम्मेदारियों को भी महसूस करते हुए तग-ओ-दो करेगा।
अल्लाह तआला क़ौम-ओ-मिल्लत की बेटियों की हिफ़ाज़त-ओ-सयानत फ़रमाए, नीज़ उम्मत-ए-मुस्लिमह में ग़ैरत-ओ-हिमीयत को बेदार फ़रमाए और हर शख़्स को अपने हिस्से की ज़िम्मेदारियाँ बहुस्न-ओ-ख़ूबी अंजाम देने की तौफ़ीक़ अरज़ानी अता फ़रमाए। आमीन,
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