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hazrat luqman aur hazrat khizr अलैहिस्सलाम का वाकिया

हज़रत लुक़मान हकीम से किसी शख़्स ने कुछ ज़र व दिनार कर्ज़ हसना लिए। एक मुद्दत के बाद उस शख़्स ने लिखा: "साहब मुझे फ़ुर्सत नहीं। मो'तबर आदमी मिलता नही


नसीहत भरा वाकिया

हज़रत लुक़मान हकीम और हज़रत ख़िज़्र अलैहिस्सलाम का यह वाक़िया, नसीहतों और हिकमत से भरपूर है। यह क़िस्सा एक ऐसी दानाई का नमूना है, जो अल्लाह के नेक बंदों के ज़रिये इंसानों तक पहुंचती है। इसमें सफर के दौरान एक बाप की अपने बेटे को दी गई तीन अहम नसीहतें, और हज़रत ख़िज़्र अलैहिस्सलाम की रहनुमाई, हर कदम पर इंसान को सही राह पर चलने की सीख देती हैं। यह वाक़िया यकीन, इताअत, तजुर्बा और अल्लाह पर भरोसे का बेहतरीन सबक़ है।  

हज़रत लुक़मान और हज़रत ख़िज़्र अलैहिस्सलाम


हज़रत लुक़मान हकीम से किसी शख़्स ने कुछ ज़र व दिनार कर्ज़ हसना लिए। एक मुद्दत के बाद उस शख़्स ने लिखा: "साहब मुझे फ़ुर्सत नहीं। मो'तबर आदमी मिलता नहीं। साहबज़ादा को भेज दें ताकि कर्ज़ ले जाए।" हज़रत लुक़मान ने अपने फ़र्ज़ंद को तीन नसीहतें फ़रमाकर रवाना किया:  

(1) पहली यह कि पहली मंज़िल में एक बढ़ का दरख़्त आता है, उसके तले न सोना।  

(2) दूसरी यह कि दूसरी मंज़िल में एक बड़ा शहर वाक़े होगा, उसके अंदर क़याम न करना, खाना खाकर जंगल में जा रहना।  

(3) तीसरी यह कि उस मक़रूज़ (कर्ज़दार) के घर न ठहरना और यह भी फ़रमाया कि रास्ते में कोई तजुर्बा कार इंसान मिले और वह हमारी नसीहत के बरअक्स भी इरशाद करे, तो उस पर अमल करना।  

पहली नसीहत का इम्तिहान  

हज़रत लुक़मान के बेटे ने कुछ रास्ता तय किया तो एक बूढ़ा मुसाफ़िर मिला। उसने पूछा: "लड़के, कहां जाते हो?" उसने सब हाल कह सुनाया। बड़े मियां बोले: "मुझको भी उसी शहर पहुंचना है। अच्छा हुआ मेरा तेरा साथ हो गया।" जब पहली मंज़िल में दाख़िल हुए, तो बड़े मियां ने कहा: "इस दरख़्त के नीचे रहेंगे ताकि शबनम से बचें।"  

लड़के ने कहा: "साहब, मुझे वालिद ने मना किया है।"  

बड़े मियां ने कहा: "भला कुछ और भी कहा था?"  

लड़के ने बोला: "हां, यह भी फ़रमाया है कि अगर कोई इस राह का वाक़िफ़ मिले, तो उसकी बात मान लेना।"  

बूढ़े ने कहा: "मैं इस राह से ख़ूब वाक़िफ़ हूं। लिहाज़ा हमारा कहना मानो।"  

गर्ज़, दोनों ने दरख़्त के नीचे बिस्तर किए और लेट गए। आधी रात गए, एक सांप दरख़्त से उतरा, जिसे बड़े मियां ने मार डाला और उसे ढांप दिया। सुबह हुई तो लड़के के दिल में ख्याल आया कि वालिद माजिद ने ख्वामख्वाह मना फ़रमाया, यह दरख़्त तो बड़े आराम का मुक़ाम है। फिर रोशन ज़मीर ने मालूम किया के लड़का बाप से बद्ज़न हुआ जाता है इसलिए उसे रात का माजरा कह सुनाया और ढाल के नीचे से निकाल कर सांप दिखा दिया। उस वक़्त लड़के की तसल्ली हो गई। बड़े मियां ने कहा: "सांप का सिर काटकर अपने पास रखो।"  

داشته آید بکار۔۔۔ اگر چه بودر سیر مار 

"रखी हुई चीज़ काम आती है, अगरचे सांप का सिर ही क्यों न हो।" 

उसने फ़ौरन तामील की और चल निकले ।" 

दूसरी नसीहत का इम्तिहान

दूसरे दिन, एक शहर पहुंचे। बड़े मियां ने कहा: "इसी शहर में रात को रहेंगे।"  

लड़के ने कहा: "बहुत अच्छा, मैं तो आपके हुक्म की तामील करूंगा।"  

दोनों एक मुसाफ़िरख़ाने में जा ठहरे। इस शहर का यह दस्तूर था कि जब कोई जवान मुसाफ़िर आता, तो बादशाह अपनी बेटी की शादी उससे कर देता। सुबह को वह मुसाफ़िर मुर्दा निकलता।  

हसब-ए-दस्तूर, बादशाह को ख़बर पहुंची और नौजवान मुसाफ़िर की तलबी हुई। निकाह हो गया। जब लड़का दुल्हन के पास जाने लगा, तो पीर-दाना ने फ़रमाया: "पहले इस सांप के सिर को जो तुम्हारे पास है, आग में रखकर अपनी बीवी को उसकी धूनी दीजियो, फिर उसके पास जाना।"  

लड़के ने ऐसा ही किया। औरत के रहम में एक मर्ज़ था, जो मर्द उससे सोहबत करता, ज़िंदा न रहता। धूनी की तासीर से वह मर्ज़ दूर हो गया। सुबह को वह लड़का सही-सलामत महल से बाहर आया। बादशाह को बड़ी ख़ुशी हासिल हुई कि कोई तो दामाद बच निकलने में कामयाब हुआ।  

तीसरी नसीहत का इम्तिहान

चंद दिन बाद रवाना हुए। तीसरी मंज़िल तय की। अब बड़े मियां बोले: "इस मक़रूज़ के घर ठहरेंगे।"  

चुनांचे, रात को वहीं क़याम किया। मेज़बान की नीयत बिगड़ी कि रात को दोनों को मार डालूं, ताकि रुपया बच जाए। मेहमानों से पूछा: "साहिबो, अंदर सोओगे या बाहर?"  

बड़े मियां बोले: "गर्मी है, हम तो बाहर सोएंगे।"  

जब आधी रात गुज़री, तो बड़े मियां ने पिसर-ए-लुक़मान को जगाया और कहा: "अब ठंड लगती है, अंदर चलो।"  

यह दोनों अंदर पहुंचे और मेज़बान के लड़कों को जगा कर बाहर भेज दिया। जब तीसरा पहर रात का हुआ, तो मालिक-ए-मकान आया और सहन (बाहर) में सोने वालों को क़त्ल कर दिया। सुबह को देखा, तो अपने लड़कों को मुर्दा पाया। निहायत सदमा हुआ, मगर चुप रह गया।  

خود کرده را علاج نیست

"अपने किए का क्या इलाज?"  

मजबूरन मेहमानों को रकम देकर रुख़सत किया। दोनों मुसाफ़िर वापस हुए। जब उस मुक़ाम पर पहुंचे जहां बड़े मियां से मुलाक़ात हुई थी, तो पीर-ए-बुज़ुर्गवार ने कहा: "लो साहिब, ख़ुदा हाफ़िज़। अब हम तो जाते हैं। अपने वालिद से हमारा सलाम कहना।"  

लड़के ने अर्ज़ किया: "आपका नाम क्या है?"  

फ़रमाया: "तुम्हारा बाप ख़ूब जानता है।"  

वालिद की ख़िदमत में लड़का पहुंचा और सफर का सारा माजरा कह सुनाया। पूछा: "अब्बा जान, वह बुज़ुर्गवार कौन थे?"  

वालिद ने कहा: "वह हज़रत ख़िज़्र अलैहिस्सलाम थे।"  

इस वाक़िये का खुलासा यह है कि इंसान को हमेशा बुज़ुर्गों और तजुर्बा-कार लोगों की बात माननी चाहिए। अल्लाह अपने नेक बंदों को ऐसे तरीके से मदद करता है, जिसे हम समझ नहीं पाते। हज़रत ख़िज़्र अलैहिस्सलाम की रहनुमाई ने हज़रत लुक़मान के बेटे को हर मुश्किल से बचाया और यह साबित किया कि नसीहत पर अमल हो, तो हर परेशानी आसान हो जाती है। इस क़िस्से से हमें सीख मिलती है कि अल्लाह पर यकीन रखें और बुज़ुर्गों की नसीहत पर अमल करें, क्योंकि यही कामयाबी का रास्ता है।


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