आज हम एक अहम मौज़ू पर बात करेंगे जो हर मुसलमान के ज़हन में कभी न कभी ज़रूर आता है और वह मोज़ू है मज़ारात शरीफ़ा पर हाज़िरी का सही तरीका क्या है। मज़ारात में हाज़री किस तरह देना चाहिए? क्या पढ़ना चाहिए? और किन बातों से परहेज़ करना चाहिए? इन सवालों के जवाब हम हदीसे मुबारका और फ़िक़हे हनफ़ी के अज़ीम इमाम आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान रहमतुल्लाह अलैह की तालीमात की रोशनी में पेश करेंगे।
मज़ारात शरीफ़ा पर हाज़िरी का सबूत और तरीका
ज़ियारते कुबूर की शरई हैसियत
हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ी अल्लाह तआला अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़र्माया मैंने तुम्हें क़ब्रों की ज़ियारत से रोक रखा था तो अब तुम उनकी ज़ियारत करो क्यों कि ज़ियारते कुबूर दुनिया से बे-रग़बत करती है और आख़िरत की याद दिलाती है। (मिश्कात शरीफ स:54, बाब ज़ियारतुल कुबूर)
औरतों के लिए ख़ास हुक्म
हज़रत अबू हुरैरा रज़ी अल्लाह तआला अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क़ब्रों की ज़ियारत करने वालियों पर लानत फ़र्माई। (मिश्कातुल मसाबिह)
मसअला मज़ारात पर औरतों की हाज़िरी ना-जाइज़ व मम्नूअ है।
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा अलैहिर्रहमा का ब्यान किया तरीका ए ज़ियारत
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा अलैहिर्रहमा से सवाल हुआ कि बुज़ुर्गों के मज़ार पर जाएँ तो फातिहा किस तरह से पढ़ा करें और फातिहा में कौन कौन सी चीज़ें पढ़ा करें? तो आपने यह जवाब दिया
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, नहमदुहू व नुसल्ली अला रसूलिहिल करीम
मज़ारात शरीफ़ा पर हाज़िर होने में पाएंती की तरफ़ से जाए और कम अज़ कम चार हाथ के फ़ासिले पर मुवाज्जहा में (चेहरे के सामने) खड़ा हो और मुतवस्सित आवाज़ में बा अदब सलाम अर्ज़ करे अस्सलामु अलैकुम या सैय्यिदी व रहमतुल्लाहि व बरकातुह
फिर पढ़ें
दुरूदे गौसिया तीन बार
सूरह अल्हम्द शरीफ एक बार
आयतुल कुर्सी एक बार
सूरह इख़लास सात बार
फिर दुरूदे गौसिया शरीफ सात बार।
और वक़्त फुर्सत दे तो सूरह यासीन और सूरह मुल्क भी पढ़ कर अल्लाह अज़ व जल से दुआ करे कि इलाही इस क़िराअत पर मुझे इतना सवाब दे जो तेरे करम के काबिल है न इतना जो मेरे अमल के काबिल है। और इसे मेरी तरफ़ से इस बन्दा मक़बूल को नज़र पहुँचा। फिर अपना जो मतलब जाइज़ शरई हो उसके लिए दुआ करे और साहिबे मज़ार की रूह को अल्लाह अज़वजल की बारगाह में अपना वसीला करार दे फिर उसी तरह सलाम कर के वापस आए।
मज़ारात पर मम्नूअ काम ये हरगिज़ न करें
मज़ार को न हाथ लगाए न बोसा दे (न चूमे) तवाफ बिल-इत्तिफ़ाक ना-जाइज़ है और सज्दा हराम।
वल्लाहु तआला आलम
(फतावेरज़विया, जिल्द 4, स: 212-213- रज़ा एकेडमी)
इख़तितामी नसीहत
ज़ियारते कुबूर सुन्नते नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम है लेकिन शरई हुदूद व कयूद का ख़्याल रखना ज़रूरी है। औरतों के लिए क़ब्रों की ज़ियारत जाइज़ नहीं। मर्दों के लिए भी आदाब की पाबंदी लाज़िम है। अल्लाह पाक हमें शरई तरीके से बुज़ुर्गाने दीन की ज़ियारत करने की तौफ़ीक अता फ़र्माए। आमीन
