ग़ीबत मुआशरे का ज़हरीला नासूर और इस्लामी नज़र में उसकी हकीकत

इस्लाम में ग़ीबत को मुआशरे का ज़हरीला नासूर कहा गया है। जानिए कुरआन और हदीस की रौशनी में ग़ीबत की हकीकत,उसकी सज़ा,और इससे बचने के इस्लामी तरीके।

इस्लाम एक पाकीज़ा और मुकम्मल मज़हब है जो इंसान को फलाह (कामयाबी) और नजात की राह पर चलने की ताकीद करता है। अल्लाह तआला का पसंदीदा यह दीन हमें सिरात ए मुस्तकीम पर गामज़न रहने, और अपनी ज़िंदगी इस्लामी अहकाम के मुताबिक़ गुज़ारने की हिदायत देता है।

जो शख़्स इस्लाम के उसूलों के मुताबक़ ज़िंदगी गुज़ारता है, उसकी ज़िंदगी न सिर्फ़ पुरसुकून होती है बल्कि दीन और दुनिया दोनों में बरकत हासिल होती है। मगर अफ़सोस कि दौर ए हाज़िर में हमारे समाज में बुराइयाँ दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं। उनमें से एक सबसे बड़ी और खतरनाक बुराई है “ग़ीबत”

कुरआन करीम की रौशनी में ग़ीबत की हकीकत

अल्लाह तआला फ़रमाता है

ऐ ईमान वालो! बहुत से गुमानों से बचो, बेशक कोई गुमान गुनाह हो जाता है, और ऐब न ढूँढो और एक-दूसरे की ग़ीबत न करो। क्या तुम में कोई पसंद करेगा कि अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाए? तो यह तुम्हें गवारा न होगा। और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह तौबा क़बूल करने वाला और मेहरबान है। (सूरत अल-हुजुरात, 49:12)

इस आयत की तफ़्सीर में हज़रत मौलाना सय्यद शाह नईमुद्दीन मुरादाबादी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं “ग़ीबत” यह है कि किसी मुसलमान भाई की पीठ पीछे ऐसी बात कही जाए जो उसे नागवार गुज़रे। अगर वह बात सच्ची है तो ग़ीबत, और अगर झूठी है तो “बुहतान”

इसलिए मुसलमान को चाहिए कि किसी की ग़ीबत से बचे, क्योंकि उसकी इज़्ज़त पर ज़बान चलाना ऐसा है जैसे उसके मरने के बाद उसका गोश्त खाना। जिस तरह जिस्म को काटने से दर्द होता है, उसी तरह ग़ीबत से दिल को तकलीफ़ होती है और इंसान की आबरू उसके गोश्त से ज़्यादा अज़ीज़ होती है।

शान ए नुज़ूल

रिवायत है कि जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जिहाद के लिए रवाना होते, तो दो मालदारों के साथ एक ग़रीब मुसलमान को रख देते ताकि वह उनकी ख़िदमत करे। एक मर्तबा हज़रत सलमान रज़ियल्लाहु अन्हु दो साथियों के साथ थे। वो एक रोज़ सो गए और खाना तैयार न कर सके, तो उन साथियों ने उन्हें रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़िदमत में खाना लाने भेजा।

जब हज़रत उसामा रज़ियल्लाहु अन्हु (जो उस वक़्त खाना पकाने के ज़िम्मेदार थे) ने कहा कि उनके पास कुछ नहीं है, तो उन दोनों ने कहा “उन्होंने बुख़्ल किया। जब ये बात हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक पहुँची, तो आपने फ़रमाया “मैं तुम्हारे मुँह में गोश्त का रंग देखता हूँ। उन्होंने अर्ज़ किया “या रसूलल्लाह! हमने तो गोश्त खाया ही नहीं। फ़रमाया “तुमने अपने भाई की ग़ीबत की है, और जो ग़ीबत करता है, वह अपने भाई का गोश्त खाता है।

ग़ीबत एक कबीरा गुनाह

ग़ीबत बिला शक कबाइर (बड़े गुनाहों) में से है।

ग़ीबत करने वाले पर तौबा लाज़िम है।

हदीस शरीफ़ में है “ग़ीबत का कफ़्फ़ारा यह है कि जिसकी ग़ीबत की हो, उसके लिए दुआ ए मग़फ़िरत की जाए।

हाँ, अगर कोई खुल्लम-खुल्ला गुनहगार हो (फ़ासिक़ मुआल्लिन), या ज़ालिम बादशाह हो, या कोई बदमज़हब हो तो उनके ऐब का बयान करना ग़ीबत नहीं कहलाता, बल्कि लोगों को उनसे बचाने के लिए ज़रूरी है।

हदीस शरीफ़ में ग़ीबत की मुज़म्मत

हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया क्या जानते हो ग़ीबत क्या है? सहाबा ने अर्ज़ किया “अल्लाह और उसका रसूल बेहतर जानते हैं। फ़रमाया “अपने भाई का ऐसा ज़िक्र करना जो उसे नागवार गुज़रे। सहाबा ने पूछा “अगर वह बात सच हो तो? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया “अगर सच है तो ग़ीबत है, और अगर झूठ है तो बुहतान है। यानी ग़ीबत सच बोलकर की जाती है, मगर फिर भी हराम है, और बुहतान झूठ बोलकर, जो दोहरा गुनाह है।

मुआशरे पर ग़ीबत के असर

ग़ीबत वह बला है जो रिश्तों को तोड़ देती है, दिलों में नफ़रतें भर देती है और समाज में अदावत (दुश्मनी) पैदा करती है। आज अफ़सोसनाक आलम यह है कि जहाँ कुछ लोग जमा होते हैं, वहाँ किसी की ग़ीबत ज़रूर शुरू हो जाती है। हमें चाहिए कि ऐसे बेकार और गुनाह वाले कामों से बचें और अपनी महफ़िलों को ज़िक्र, इल्म, दुआ और नेक अमल से रोशन करें।

नसीहत

ग़ीबत जहन्नम की तरफ़ ले जाने वाला अमल है। इससे न सिर्फ़ इंसान की आख़िरत तबाह होती है बल्कि दुनिया में भी उसका एतबार और इज़्ज़त मिट जाती है। जो अहल-ए-इल्म और समझ रखने वाले लोग इस गुनाह में गिरते हैं, वो दरअसल अपने इल्म की बरकत खो देते हैं। आओ, अपने दिलों को साफ़ करें, ज़बान की हिफ़ाज़त करें और अपने मुसलमान भाई की इज़्ज़त की क़दर करें। क्योंकि जब हम किसी की ग़ीबत करते हैं  दरअस्ल अपनी आख़िरत को जलाते हैं।

आखिर में

अल्लाह तआला हमें ग़ीबत, बुहतान और तमाम ज़बानी गुनाहों से बचाए, और हमारी ज़बान को सिर्फ़ भलाई और याद-ए-ख़ुदा के लिए इस्तेमाल करने की तौफ़ीक़ दे। आमीन।

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