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farz sunnat masnoon mustahab gusl और गुस्ल का तरीका

 


ग़ुस्ल का बयान 

इस मज़मून में मर्द और औरत के गुस्ल के बारे में बताया गया है साथ ही हैज़ और निफ़ास वाली औरतों के मुताल्लिक इस्लामी अहकामात और रहनुमाई पेश की गई है। ये अहकाम शरियत की रोशनी में तफ्सील से बयान किए गए हैं, ताकि हर मुस्लिम खातून इन बातों को समझकर अपनी ज़िंदगी में इन पर अमल कर सके।  
कुरान ए करीम में है 
وَإِن كُنْتُمْ جُنبًا فَأَطَّهَّرُوا
(तरजुमा) और अगर तुम्हें नहाने की हाजत हो तो नहा कर खूब साफ़ सुथरे हो जाओ।  

ग़ुस्ल का मस्नून तरीक़ा

पहले दोनों हाथों को पंजों तक धोएँ फिर इस्तिंजा करें और जिस जगह नजासत वग़ैरा हो उसको दूर करें फिर वुज़ू करें और वुज़ू के बाद तीन मर्तबा दाएं मोढे पर फिर तीन मर्तबा बाएं मोढे पर फिर तीन मर्तबा सर पर और सारे बदन पर पानी बहाएं और मलें और किसी से कलाम न करें, न कोई दुआ पढ़ें। ख़वातीन के लिए ग़ुस्ल जनाबत में सर के बालों पर मुकम्मल तौर पर पानी बहाना ज़रूरी नहीं है, लेकिन यह ज़रूरी है कि बालों की जड़ों तक पानी पहुँच जाए और जड़ें तर हो जाएँ।  

मुन्दर्जा ज़ेल सूरतों में ग़ुस्ल फर्ज़ है 

(1) मनी का ब’शहवत निकलना।  
(2) सोते में एहतेलाम होना।  
(3) औरत मर्द से मुबाशरत करना, ख़्वाह मनी निकले या न निकले।  
(4) औरत का हैज़ से फारिग़ होना।  
(5) निफ़ास ख़त्म होना यानी बच्चा पैदा होने के बाद आने वाले ख़ून का बंद होना।  

यह ग़ुस्ल मस्नून हैं  

जुमे की नमाज़ और दोनों ईदों की नमाज़ के लिए, एहराम बांधते वक्त और अरफ़ा के दिन ग़ुस्ल करना सुन्नत है।  

यह ग़ुस्ल मुस्तहब है 

वुकूफ़ अराफ़ात व वुकूफ़ मुज़दलिफ़ा, हाज़िरी हरम शरीफ़ व हाज़िरी दरबार-ए-सरकार-ए-दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, शब-ए-बरात व शब-ए-क़द्र वग़ैरा के लिए ग़ुस्ल करना मुस्तहब है।  

ग़ुस्ल के फ़राइज़

1. कुल्ली करना यानी मुँह के हर पुर्ज़े, गोशे, होंट से हलक की जड़ तक हर जगह पानी बह जाए। ग़ुस्ल फ़र्ज़ में जब तक इस तरह कुल्ली न की जाए ग़ुस्ल न होगा।  
2. नाक में पानी लेना यानी दोनों नथनों की जहाँ तक नरम जगह है, का धुलना ज़रूरी है। पानी को सूँघ कर ऊपर चढ़ाना चाहिए ताके बाल-बराबर भी जगह-धुलने-से ना रह-जाए, वरना ग़ुस्ल न होगा। नाक के अंदर बालों-का-धोना भी ज़रूरी है। 
3. तमाम ज़ाहिर बदन पर पानी का बह जाना यानी सर के बाल से पाँव के तलुओं तक जिसम के हर पुरज़े, हर रोंगटे, हर बाल पर पानी बह-जाना ज़रूरी है। सिर्फ़ पानी को बदन पर चिपड़ लेने से ग़ुस्ल अदा न होगा।  
औरत पर सिर्फ़ बालों की जड़ों-को तर कर-लेना ज़रूरी-है। खोलना ज़रूरी नहीं है। हाँ, अगर-चोटी इतनी सख़्त-गुंधी हो के बिना खोले-जड़ें तर-न-हों तो खोलना ज़रूरी है। कानों के सुराख़ में भी पानी गुज़ारना ज़रूरी है।  
अगर कोई शख़्स ग़ुस्ल फ़र्ज़ में कुल्ली करना या नाक में पानी लेना भूल गया या जिस्म का कोई हिस्सा ख़्वाह वह बाल बराबर ही हो, धुलने से रह गया तो ग़ुस्ल न होगा। इस सूरत में अज़-सर-ए-नव ग़ुस्ल की ज़रूरत नहीं है बल्कि जो चीज़ ग़ुस्ल में अदा करना भूल गया है, उसको अदा करे ग़ुस्ल पूरा हो जाएगा। मसलन कुल्ली करना भूल गया है तो अब कुल्ली कर ले, ग़ुस्ल सही हो जाएगा। इसी सूरत में अगर नमाज़ पढ़ ली तो नमाज़ न होगी बल्कि ग़ुस्ल करते वक्त जो अज़ू धुलने से रह गया है, उस पर पानी बहाकर दोबारा नमाज़ अदा करे।  

जुंबी मर्द औरहैज़-ओ-निफ़ास वाली औरत के अहकाम  

ग़ुस्ल जनाबत फिल्फूर वाजिब नहीं होता, हाँ जब नमाज़ का इरादा कर ले तो वाजिब है। इसी तरह अगर इतनी ताखीर हो गई के नमाज़ का आख़िरी-वक़्त आ चूका तो-अब फ़ौरन नहा-ना गुस्ल करना फ़र्ज़ है। अलबत्ता नहाने में ताख़ीर न करनी चाहिए क्योंकि हदीस में फ़रमाया गया है  के जिस-घर में जुन्बी हो, वहाँ रहमत के फरिश्ते नहीं आते। जनाबत से ग़ुस्ल न करना मर्ज़ बरस पैदा करता है और हालत-ए-हैज़ में जिमा' करने से जुज़ाम का ख़तरा है। मोमिन के बदन पर जब तक कोई हक़ीक़ी ज़ाहिरी नजासत, मसलन पाख़ाना, पेशाब वग़ैरा न लगा हो, वह नजिस नहीं होता और इस मामले में मर्द-औरत, काफ़िर-मुसलमान, ज़िंदा-मुर्दा सबका एक ही हुक्म है।  
आदमी बे-वुज़ू हो या जुंबी, यह नजासत उसकी हुक्मी है। लिहाज़ा उसका पसीना, लुआब-दहन और छूटा पाक है। जिस-पर ग़ुस्ल-फ़र्ज़ है, उसे बग़ैर ज़रूरत मस्जिद में जाने के लिए तयम्मुम जाइज़ नहीं। हाँ, अगर मजबूरी हो, जैसे डोल उसी मस्जिद के अंदर है और कोई लाने वाला नहीं है, तो इस ज़रूरत से तयम्मुम करके जाए और जल्द से जल्द डोल लेकर निकल आए। इसी तरह अगर मस्जिद में सोया हुआ था और एहतेलाम हो गया, तो आँख खुलते ही जहाँ सोया था वहीं तयम्मुम करके फ़ौरन निकल आए, ताख़ीर हराम है।  
जिसको नहाने की हाजत हो (जुंबी), उसे मस्जिद में जाना, तवाफ़ करना, क़ुरान-ए-मजीद छूना (अगरचे उसका हाशिया, जिल्द या चोली छुए) या देखकर या ज़बानी पढ़ना या किसी आयत का लिखना, या आयत का तावीज़ लिखना, या ऐसा तावीज़ छूना, या ऐसी अंगूठी पहनना नाजायज़ है जिस पर हुरूफ-ए-मुक़त्तआत हों, या ऐसा तावीज़ या तख़्ती पहनना जिस पर आयात-ए-क़ुरान लिखी हों, हराम है।  
जुन्बी को अज़ान-का-जवाब देना जाइज़ है। इसी तरह सलाम का जवाब देना और तस्बीह-ओ-तहलील और दुरूद-ए-शरीफ़ पढ़ना भी जाइज़ है, मगर बेहतर ये है के वुज़ू या कुल्ली-करके पढ़े। और सिर्फ़ क़ुरान-ए-मजीद को देखना अगरचे हुरूफ पर नज़र पड़े और अल्फ़ाज़ समझ में आएँ और ज़बान से न निकले बल्कि ख़याल में पढ़े जाएँ, हरज नहीं। जुंबी और बे-वुज़ू को फ़िक़्ह-ओ-तफ़्सीर, हम्द-ओ-तफ़्सीर, हदीस की किताबों को छूना मक्रूह है। मगर जहाँ काग़ज़ पर क़ुरान-ए-हकीम की आयत लिखी हुई है, उस पर हाथ रखना हराम है।  
क़ुरान पाक का तरजुमा, फ़ारसी या उर्दू या किसी और ज़ुबान में हो, उसको भी छूने और पढ़ने में क़ुरान-ए-मजीद ही का सा हुक्म है। जुंबी को क़ुरान-ए-पाक की किताबत करना हराम है। इसी तरह बे-वुज़ू को भी किताबत-ए-क़ुरान-ए-करीम जाइज़ नहीं।  

हैज़-ओ-निफ़ास वाली औरत के अहकाम

हैज़ और निफ़ास वाली औरत का क़ुरान-ए-मजीद को हाथ लगाना हराम है। अगर क़ुरान-ए-मजीद की जिल्द, चोली, या हाशिया को हाथ, उंगली की नोक, या बदन का कोई हिस्सा ही लगे, यह सब हराम है। इसी तरह कुरते के दामन, या दुपट्टे के आँचल से, या किसी ऐसे कपड़े से जो पहना हुआ हो, क़ुरान-ए-मजीद को छूना हराम है। हाँ, जुज़्दान में क़ुरान-ए-मजीद हो तो उस जुज़्दान को छूने में कोई हरज नहीं। इसी तरह रूमाल या ऐसे कपड़े से पकड़ना जो न अपना ताबे हो और न क़ुरान-ए-मजीद का, तो यह जाइज़ है।  
लेकिन कुरते की आस्तीन, दुपट्टे का आँचल, या यहाँ तक कि चादर का एक कोना अगर कंधे पर है और दूसरे कोने से क़ुरान-ए-मजीद को छूना या उठाना हराम है, क्योंकि यह चादर वग़ैरह आदमी के ताबे हैं, जैसे कि चोली क़ुरान-ए-मजीद के ताबे है।  
हैज़ और निफ़ास वाली औरत को मस्जिद में जाना, तवाफ़ करना, क़ुरान-ए-मजीद को देखकर या ज़बानी पढ़ना, या किसी आयत का लिखना, या आयत का तावीज़ बनाना, या ऐसा तावीज़ छूना, या ऐसी अंगूठी छूना या पहनना, जिसके नगीने पर हुरूफ-ए-मुक़त्तआत लिखे हों, हराम है।  
हैज़ और निफ़ास वाली औरत का पसीना, उसका जूठा पानी, और उसके हाथ की पकाई हुई रोटी वग़ैरह पाक है।  
शौहर को अपनी हाइज़ा बीवी से मुबाशरत, यानी उसके साथ सोना, लेटना, चाहे एक ही लिहाफ़ में हो, और बोस-ओ-कनार जाइज़ है, मगर जिमा' (शारीरिक संबंध) हराम है।  
हर मुसलमान मर्द औरत को चाहिए कि इन अहकाम पर अमल करें शरियत की पाबंदी को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाए। अल्लाह तआला हमें इन अहकाम पर अमल करने की तौफ़ीक अता फरमाए। आमीन! 

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