quran hadees aur fiqah ki roshni mein meelad | मीलादुन्नबी पर एतराज़ का इल्मी और तहकीकी जवाब

जश्ने मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर उठने वाले तमाम सवालों, शुबहात और एतिराज़ात का कुरआन ओ हदीस, उसूले फिक़्ह और अकाबिरीने उम्मत के हवाले से म


जश्ने मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर उठने वाले तमाम सवालों, शुबहात और एतिराज़ात का कुरआन ओ हदीस, उसूले फिक़्ह और अकाबिरीने उम्मत के हवाले से मुकम्मिल, दलीलों से भरपूर और आसान फहम जवाब पढ़ें।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ाते अक़्दस से मुहब्बत बिलाशुबा ईमान की असास है। इसी मुहब्बत के इज़हार की एक शक्ल जश्ने मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम है, जिस पर बदमज़्हबों और गुमराहों की जानिब से चंद सवालात उठाए जाते हैं। ज़ैल में हम इन सवालात का क़ुरआन व सुन्नत, उसूले फ़िक़्ह और अकाबिरीने उम्मत के इल्मी नुक़ात की रोशनी में तफ़्सीली जाएज़ा पेश कर रहे हैं।

क्या हुज़ूर की मुहब्बत सिर्फ मीलाद मनाने से है

सवाल क्या नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत, बारह रबीउल अव्वल मनाने पर मौक़ूफ़ है?
जवाब हरगिज़ नहीं! नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत किसी एक दिन या अमल पर मौक़ूफ़ नहीं, बल्कि यह एक मुसलमान के हर लम्हे और हर सांस का हिस्सा है। अलबत्ता नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मुहब्बत की अलामतों में से एक अलामत यह ज़रूर है। लेकिन यह सवाल एक मंतिक़ी मुग़ालते पर मबनी है। अस्ल मसला मनाने या न मनाने का नहीं, बल्कि इस ख़ुशी की मुख़ालफ़त करने का है।
मुहब्बत का दावा करने वाला अगर अपने महबूब से मंसूब किसी ख़ुशी के मौके पर किसी वजह से शरीक न भी हो तो वह इसकी मुख़ालफ़त नहीं करता और न ही मनाने वालों को बुरा कहता है। जब कोई फ़िर्क़ा नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत के ज़िक्र और इस पर इज्तिमाई ख़ुशी को बिदअत कहता है और लोगों को इससे रोकता है, तो यह अमल उनके दिलों में छिपी नफ़रत और बुग़्ज़ की ग़माज़ी करता है और नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ात से या उनसे मंसूब किसी चीज़ से बुग़्ज़ रखना बलात्तफ़ाक़ हराम और ईमान के लिए तबाह कुन है। लिहाज़ा, मसला जश्न न मनाने का नहीं, बल्कि जश्न से दुश्मनी का है।

मीलाद न मनाने वाले को क्या समझा जाए 

सवाल अगर कोई बारह रबीउल अव्वल न मनाए तो उसे गुस्ताखे रसूल या नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मुहब्बत न करने वाला माना जाएगा?
जवाब इस सवाल का जवाब इस बात पर मुन्हसिर है कि न मनाने की वजह क्या है? हुक्म लगाने से पहले नीयत और सबब को देखना ज़रूरी है। अगर बारह रबीउल अव्वल ईद मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मौके पर जाइज़ ख़ुशियों के इज़हार को भी नाजाइज़ व हराम बल्कि शिर्क कहा जाए तो यह गुस्ताख़ी के मुतरादिफ़ ज़रूर है। अगर कोई शख़्स किसी ज़ाती मसरूफ़ियत या उज़्र की बिना पर नहीं मनाता लेकिन दिल में इस दिन की ख़ुशी को अच्छा समझता है और मनाने वालों से बुग़्ज़ नहीं रखता, तो उस पर हरगिज़ कोई फ़तवा नहीं।
लेकिन अगर कोई शख़्स इस लिए नहीं मनाता क्योंकि वह इसे बिदअत, गुमराही और गुनाह समझता है, तो फिर सवाल पैदा होता है कि उसने मुहब्बत के इस फ़ितरी इज़हार को गुनाह किस शरीई दलील की बुनियाद पर तय किया? चूंकि जश्ने मीलाद की मुमानिअत की कोई एक भी दलील क़ुरआन व सुन्नत में मौजूद नहीं, इस लिए इसे बिदअत और गुनाह समझ कर छोड़ना दरहक़ीक़त शरीअत पर इफ़्तिरा है और यह अमल नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में बेअदबी के ज़ुमरे में आता है। हमारा एतराज़ इसी दूसरी किस्म के लोगों पर है जो इस ख़ुशी के ही दुश्मन हैं।

क्या सहाबा ने मीलाद मनाया

सवाल सहाबा किराम, ताबेईन, फुकहा व मुज्तहिदीन से ख़ास बारह रबीउल अव्वल मनाना साबित है?
जवाब जी हां, इस अमल की अस्ल कुरूने उला से बिलाशुबा साबित है। सहाबा किराम, ताबेईने इज़ाम, फुकहा व मुज्तहिदीने किराम ने अपने ज़माने के एतिबार से ख़ास इस दिन ख़ुशियों का इज़हार फ़रमाया है जो कि उनके अक़वाल व अफ़आल से रोशन है। हां अगर किसी ने मना किया हो या नाजाइज़ व हराम कहा हो तो दिखाएं।
महफ़िले मीलाद का सबूत मुतअद्दिद अहादीस मौजूद हैं कि सहाबा किराम एक साथ बैठ कर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत और आप की शान का ज़िक्र करते थे और इस पर ख़ुशी का इज़हार फ़रमाते थे। ख़ुद नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इन महफ़िलों को सराहा और उनके लिए रहमत की दुआ फ़रमाई। जुलूस का सबूत जब सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ लाए तो मदीना शरीफ़ के तमाम उश्शाक़, मर्द, औरतें और बच्चे जुलूस की शक्ल में तलअल बद्रु अलैना पढ़ते हुए आप को शहर में ले कर चले। यह आप की आमद पर इज्तिमाई ख़ुशी और जुलूस का सबसे बड़ा और वाज़ेह सबूत है।
अस्ल मसला सबूत नहीं, मुमानिअत का है फ़िक़्ह की बुनियादी उसूल यह है कि आप जवाज़ के लिए सबूत न मांगें, बल्कि हुरमत के लिए मुमानिअत की दलील पेश करें। क्या किसी एक भी सहाबी, ताबेई या इमाम ने यह फ़रमाया है कि नबी का यौमें विलादत न मनाना? जब किसी ने मना नहीं किया तो इसे नाजाइज़ कहने का हक़ आप को किस ने दिया? इज़हारे मुहब्बत का रोशन तरीक़ा हर दौर में मुहब्बत के इज़हार के तरीक़े बदलते रहते हैं। जुलूस निकालना, चराग़ां करना और महफ़िल मुनअक़िद करना हमारे दौर में ख़ुशी के इज़हार का एक मूअस्सिर और रोशन तरीक़ा है। इस्लाम ने जाइज़ तरीक़ों से ख़ुशी के इज़हार से कभी नहीं रोका।

क्या मीलाद भी ईद है

सवाल क्या बारह रबीउल अव्वल ईदुल फ़ित्र व ईदुल अज़्हा की तरह ही ईद है? अगर हां तो इसके वाजिबात सुनन व मुस्तहब्बात क्या किसी कुतुबे हदीस या फ़िक़्ह में मज़कूर हैं?
जवाब उन की तरह नहीं बल्कि उन से भी अफ़्ज़ल व आला है, क्योंकि यह दोनों ईदें, इसी मीलाद पाक का सदक़ा हैं। हां सच्चे मोमिनों के लिए तो वह सारी ईदों का मंबअ है। ईद का मफ़हूम ईद का लुग़वी मअनी ख़ुशी का दिन जो बार बार लौट कर आए। शरीअत ने हमें ख़ुशी मनाने के मौक़े और उसके उसूल बता दिए हैं। लिहाज़ा अब इसी की रोशनी में हमें यह समझना है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत का दिन न सिर्फ़ ईद बल्कि ईदों की ईद है। अगर क़ुरआन व हदीस में इस की सराहत आ जाती तो फिर मुनाफिक़ों और दीन के दुश्मनों का पर्दा कैसे फाश होता? अफ़्ज़लियत की दलील ईदुल फ़ित्र और ईदुल अज़्हा जैसी अज़ीम नेमतें हमें किस के सदक़े में मिलीं? नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सदक़े में! अगर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मीलाद न होता तो न इस्लाम होता, न क़ुरआन, न रमज़ान और न ही यह ईदें। लिहाज़ा, नेअत देने वाली ज़ात की आमद का दिन, उस नेअत के नतीजे में मिलने वाले दिनों से बदरजा उला अफ़्ज़ल होता है। मीलाद का तक़ाज़ा इस दिन का तक़ाज़ा यह है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की अज़मत के गुन गाए जाएं, लोगों को उनकी अज़मत से रोशनास कराया जाए, और उनके दुश्मनों और गुस्ताख़ों का रद किया जाए, जो कि ख़ुद एक अज़ीम इबादत है। रही बात इस दिन के सुनन व मुस्तहब्बात की, तो पहले यह बताया जाए कि जो भी दिन बाइसे फरहत व मसर्रत हो क्या इस के लिए सुनन व मुस्तहब्बाते शरईया का होना लाजिम व ज़रूरी है? अगर हां तो कुतुबे मौतबरा से इस पर शवाहिद नक़्ल करें। इनशाअल्लाहुल अज़ीज़ ईद मीलाद के भी सुनन व मुस्तहब्बात बयान कर दिए जाएंगे।

यौमे विलादत ही क्यूँ मनाया जाता है 

सवाल सिर्फ़ यौमे विलादत ही क्यों? बेअसत, फ़तूहात, मेराज वग़ैरह बल्कि हर दिन ख़ुशी मनानी चाहिए?
जवाब यह कहना ही ग़लत है कि सिर्फ़ विलादत का दिन मनाया जाता है। जिस जिस दिन इस्लाम को ग़लबा और उरूज व इर्तिक़ा मिला वह सब दिन बाइसे मसर्रत व शादमानी हैं और सच्चे मुसलमान उन्हें याद भी करते हैं, इस दिन ख़ुशियों के इज़हार को नाजाइज़ व हराम नहीं कहते। अहले सुन्नत शबे मेराज, शबे बरात, यौमे बद्र, और दूसरे अय्याम भी मनाते हैं। अलबत्ता विलादत का दिन सब से ज़्यादा ख़ुशी मनाने का मौक़ा है। इस की वजह यह है कि
मीलाद तमाम नेमतों की बुनियाद है सारी कायनात का वुजूद और उसकी तमाम ख़ुशियां इसी मीलादे पाक की मरहूने मन्नत हैं। हां यह ज़रूर है कि जिन के सदक़े में सारी नेमतें मिलीं उन के यौमे पैदाइश पर ख़ास एहतिमाम करते हैं और होना भी चाहिए। अगर नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मीलाद न होता तो कायनात की कोई शय—न बेअसत, न मेराज, न फ़तूहात—वुजूद में न आती।
होते कहां ख़लील व बना काबा व मिना लौलाक वाले साहिबी सब तेरे घर की है
जड़ और शाख़ का फ़र्क आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत दीन की जड़ और अस्ल है, जबकि बाक़ी तमाम वाक़िआत उस की शाख़ें हैं। जब अस्ल का जश्न मनाया जाए तो उसमें तमाम शाख़ों की ख़ुशी ख़ुद ब ख़ुद शामिल हो जाती है।

जुलूस की शुरूआत कब हुई 

सवाल  जब क़ुरूने सलासा में यह जलूस वग़ैरह नहीं होता था तो फिर इस का इब्तिदा कब से हुआ?
जवाब  यह दावा कि क़ुरूने सलासा में यह जुलूस वग़ैरह नहीं होता था झूट पर मबनी है। क़ुरूने सलासा में भी बल्कि सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़ाहिरी ज़माने में भी जुलूस का सबूत मिलता है, आप कुतुबे हदीस मुहब्बत की निगाह से पढ़ें सब मिल जाएगा।
जुलूस की अस्ल जैसा कि ऊपर बयान हुआ, जलूस के वाजेह अस्ल सहाबा किराम के उस अमल से साबित है जब वह नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को जुलूस की शक्ल में मदीना मुनव्वरा ले कर गए।
मौजूदा शक्ल का इर्तिक़ा हां ज़माने के एतिबार से ख़ुशियों के इज़हार का तरीक़ा बदलता रहा है। आज कल के जो सच्चे मुसलमान अरब व अजम, हिंद व सिंध बल्कि पूरी दुनिया में हैं वह अपने एतिबार से जाइज़ तरीक़े पर ख़ुशियों का इज़हार करते हैं और अक्सर जगहों पर जलूस भी निकाला जाता है। अगर ख़ुशी के इज़हार में जलूस निकालना नाजाइज़ व हराम हो तो क़ुरआन व हदीस से बयान करें।
हत्मी उसूल इन तमाम बहसों का ख़ुलासा यह है कि जश्ने मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इज़हारे मुहब्बत का एक बहुत उम्दा और मूअस्सिर तरीक़ा है और इस से मना करने की कोई एक भी सरीह दलील क़ुरआन व सुन्नत में मौजूद नहीं। और यही दो उसूल इस अमल के मुकम्मिल जवाज़ के लिए काफ़ी हैं।

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