बाल बच्चों का खर्च
बीवी और बच्चों का नफका यानी खर्च, घर का खर्च बीवी का खर्च यानि बीवी का खर्च उसके शौहर के ज़िम्मे है और इसी तरह बच्चों का खर्च बाप पर लाज़िम है और माँ का अपना दूध पिलाना बचचों को इस में बहुत फायेदा है और यहाँ पर यह भी जानते चलें के माँ को अपने बच्चों को दूध पिलाने की मुद्दत क्या है यानी कितनी उम्र तक दूध पिला सकते हैं तो दूध पिलाने की जो मुद्दत है वह दो साल है दो साल के बाद बच्चा या बच्ची को माँ का अपना दूध पिलाना जाईज़ नहीं है। जैसा के कुरान मजीद के सुरह बकरह में है "वलवालिदातु युर्दीना अव्लादहुन्ना हवलयने कामेलयने" तर्जुमा: और माएँ दूध पिलाएँ अपने बच्चों को पूरे दो बरस। (सूरत अल-बक़रा, सूरत 2, आयत (233)
बाज़ औरतें दूध पिलाने के मुआमले में इस बात का ख्याल और लिहाज़ नहीं रखती और दूध पिला देती हैं अपने भाई बहन के बच्चों को, इससे से यह होता है के जब बच्चे बड़े होते हैं तो इनके साथ निकाह करने में मसअला दर पेश आता है दोस्तों यह बात याद रखें के जिस बच्चे को उसकी ढाई साल की उम्र में औरत दूध पिला दे तो उस औरत के बच्चे उस दूध पीने वाले के रज़ाई भाई बहन बन जाएँगे, जिस से निकाह हराम हो जाएगा। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद मुबारक है "जिस तरह से सगे बहन भाई से निकाह हराम है ऐसे ही रज़ाई बहन भाई से निकाह हराम है (सहीह मुस्लिम,)
ख्याल रहे दूध पीने से हुरमत उसी के साथ होगी यानी जिसने दूध पिया है सिर्फ उसी के साथ हुरमत होगी दूसरे बहन भाई उस की रज़ाई माँ के बच्चों से निकाह कर सकते हैं। अब इसको एक मिसाल से भी समझ लीजिये ताके बात साफ़ हो जाए जैसा के ज़ैद ने हिंदा का दूध पिया तो हिंदा की बेटी से ज़ैद का निकाह हराम है। लेकिन ज़ैद के दूसरे भाई हिंदा की बेटी से निकाह कर सकते हैं। मतलब यह के जिसने हिन्दा का दूध पिया है उसका निकाह हिन्दा के बच्चों से हराम है और जिन्होंने हिन्दा का दूध नहीं पिया है उनका हिन्दा के बच्चों से निकाह जाइज़ है।
बच्चे का गोद लेना
बच्चा गोद लेना जाइज़ है किसी दुसरे के बच्चे को गोद लिया जा सकता है लेकिन देखने में यह भी आता है के जो बच्चे का बाप है उसके बाप की जगह अपना नाम इस्तेमाल किया जाता है तो यह बिलकुल भी जाइज़ नहीं है बच्चे का जो बाप है तो बच्चे की वल्दियत में उसके बाप का नाम ही इस्तेमाल किया जाये न के उसका जिसने बच्चे को गोद लिया है कुरान मजीद में इर्शादे बारी तआला है "उदऊहुम लिआबाइहिम हुवा अक्सतु इन्दल्ल्लाह" तर्जुमा: यानी उन्हें उन के बाप ही का कह कर पुकारो यह अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा ठीक है। (अल-अहज़ाब)
बच्चे की परवरिश
बच्चे की परवरिश के मुआमले में यह देखा जाता है के वालदैन बच्चे की इस्लामी परवरिश पर ध्यान ही नहीं देते इस्लाम के मुताबिक परवरिश नहीं करते देखने में यह भी आता है के जब बच्चा छोटा होता है तो उसे गालियाँ सिखाई जाती हैं नाचना सिखाया जाता है बलके जब छोटी उम्र में वह गालियाँ निकालता है तो माँ बाप खुश होते है और जब कुछ बड़ा हुआ तो उठाना बैठना आवारा दोस्तों के साथ होता है ऐसे वक़्त भी माँ बाप को बच्चे की कोई फ़िक्र नहीं होती और जब बड़ा होकर बिगड़ जाता है खराब हो जाता है और घर आकर माँ बाप को गालियाँ देता है तो फिर भागे भागे जाते हैं किसी बाबा के पास किसी तावीज़ वाले के पास के कोई तावीज़ देंदें लड़का बहुत बिगड़ गया है ना फरमान हो गया तावीज़ देदें ताके वह फर्मान्बर्दार हो जाए सुधर जाए बच्चे की शुरू से ही इस्लामी तालीम के हिसाब से परवरिश की होती तो बच्चा न फरमान नहीं बलके फरमा बरदार बनता नमाज़ी बनता माँ बाप और बड़ों का अदब करने वाला बनता।
बच्चे की स्कूल न जाने पर तो पूछ होती है लेकिन नमाज़ व मदरसा न जाने पर कोई पूछ नहीं होती। उमूमन लोगों की ख़्वाहिश होती है कि हमारा बच्चा हाफ़िज़ बन जाए। बज़ अौक़ात उन की यह मेहनत रंग ले आती है और बच्चा हाफ़िज़ बन जाता है लेकिन घर में दीनी माहौल न होने और बाद में दुनियावी तालीम व मशाग़िल की वजह से वह हिफ़्ज़ भूल जाता है। लिहाज़ा बच्चे को हाफ़िज़ बनाने के फ़ौरन बाद दर्से निज़ामी में दाख़िल करवा देना चाहिए और हर साल तरावीह पढ़ाने पर ज़ोर देना चाहिए।
बच्चे से यह नहीं पूछा जाता
आजकल यह भी देखा जाता है के अगर बच्चा स्कूल कॉलेज नहीं गया तो उससे पूछा जाता है के तुम स्कूल कॉलेज क्यूँ नहीं गए और वहीँ पर बच्चा मदरसा पढने नहीं जाता है नमाज़ नहीं पढता है तो उससे कुछ नहीं कहा जाता कुछ नहीं पूछा जाता उससे सवाल तक नहीं किया जाता के तुम मदरसा मस्जिद क्यूँ नहीं गए आजकल बच्चे को दुनियावी तालीम दिलाने की बड़ी कोशिश की जाती है के बच्चा इन्जिनिअर बने डॉक्टर बने बच्चे का मुस्तकबिल रोशन हो में यह कहना चाहूँगा के अपने बच्चे को दुनियावी तालीम दिलाएं डॉक्टर इंजिनीअर बनायें लेकिन बा हैसियत मुस्लमान अपने बच्चों को इस्लामी तालीम से आरास्ता करें अपने बच्चों को नमाज़ी बनायें। बच्चों को अदब सिखाएं।
कयामत में पूछा जाएगा
हज़रत उस्मान बिन इब्राहीम बिन मुहम्मद बिन हातिब रज़ियल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि मैं ने हज़रत अब्दुल्लाह इब्न उमर रज़ियल्लाहु तआला अन्हुमा को सुना कि आप एक शख़्स को फ़रमा रहे थे तर्जुमा: अपने बेटे को अदब सिखाओ बे शक्क तुम से तुम्हारे लड़के के बारे में पूछा जाएगा, जो तुम ने उसे सिखाया और तुम्हारे इस बेटे से तुम्हारी फ़रमाँबरदारी और इताअत के बारे में पूछा जाएगा। (इल्म और उलामा)
इस हदीस पर वालिदैन को ख़ुसूसन ग़ौर करना चाहिए। क़ियामत के दिन औलाद के बारे में यही गिरफ़्त में आएँगे। अगर सिर्फ वालिदैन ही अपनी औलाद की दीनी तरबियत व तालीम की तरफ भरपूर तवज्जो दे लें तो इल्मे दीन से दूरी का मसअला हल हो सकता है। मगर अफ़सोस कि दुनयवी उलूम सिखाने में तो वालिदैन हर क़िस्म की तकलीफ ग़वारा कर लेंगे, स्कूल की फीस भी देंगे, किताबें भी ख़रीदेंगे और न जाने क्या क्या करेंगे, लेकिन इल्मे दीन जो उन सब की बनिस्बत ज़रूरी और मुफ़ीद है उस के बारे में कुछ भी तवज्जो नहीं देंगे।
आज नहीं कल हसरत होगी
आज नहीं तो कल जब हिसाब के लिए बारगाहे इलाही अज़्ज़ व जल में हाज़िर होना पड़ेगा, उस वक़्त पता चलेगा कि इल्मे दीन क्या है। बल्कि सिर्फ उसी बात पर ग़ौर कर लें कि मरते वक़्त आज तक आप ने किसी शख़्स को देखा है कि जिस को इल्मे दुनिया हासिल न करने पर अफ़सोस हो रहा हो। हाँ इल्मे दीन हासिल न करने, दीनी राह पर न चलने, अल्लाह तआला की रज़ा के काम न करने पर अफ़सोस करने वाले आप को हज़ारों मिलेंगे और यूंही मरने के बाद ऐसा कोई शख़्स न होगा जिसे डाक्टरी न सीखने पर, इंजीनियर न बनने पर, साइंसदान न बनने पर अफ़सोस हो रहा हो। अलबत्ता इल्मे दीन न सीखने पर अफ़सोस करने वाले बहुत होंगे। बल्कि ख़ुद हदीस पाक में मौजूद है कि कल क़ियामत के दिन जिन आदमियों को सब से ज़्यादा हसरत होगी उन में एक वह है जिस को दुनिया में इल्म हासिल करने का मौक़ा मिला और उस ने इल्म हासिल न किया। नीज़ दीन की तालीम ऐसी अज़ीम शय है कि मरने के बाद भी फ़ाएदा देती है चुनांचे रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम ने फ़रमाया "इंसान जब मर जाता है। उस का अमल मुन्कति हो जाता है मगर तीन चीज़ें (कि मरने के बाद भी यह अमल ख़त्म नहीं होते उसके नामा-ए-आमाल में लिखे जाते हैं) सदक़ा जारिया और इल्म जिस से नफ़ा हासिल किया जाता हो और औलादे सालिह जो उसके लिए दुआ करती है"।
(इल्म और उलमा, सफ़ा 48,)
आखिर में दुआ है के अल्लाह सभी वालिदैन को बच्चों की सही परवरिश और तालीम की तौफीक अता फरमाए आमीन।