अख़लाक़ ए रसूल अलैहिस्सलातु-वस्सलाम कामयाबी की ज़मानत
इस्लाम का असल मक़सद इंसान को अख़लाक़ी बुलंदी और कामयाबी की राह पर लाना है। नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िन्दगी इस मक़सद का सबसे रोशन और मुकम्मल नमूना है। आपकी सीरत-ए-मुबारका ने हर दौर के इंसानों को इंसानियत, तहज़ीब और कामयाबी के बेहतरीन उसूलों से रौशन किया। आपकी ज़िन्दगी का हर पहलू इंसानियत के लिए एक रहनुमाई है। इस तहरीर में हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि किस तरह आपकी अख़लाक़ी तालीमात और किरदार पर अमल करते हुए इंसान दीन और दुनिया दोनों में कामयाबी हासिल कर सकता है। आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने मज़लूमों को सहारा दिया, जुल्म का ख़ात्मा किया और पूरी इंसानियत को राह-ए-हिदायत दिखलाई। आज भी अगर कोई समाज, कोई इंसान या कोई क़ौम तरक़्क़ी और कामयाबी की तलाश में है तो उसे नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम की सीरत और अख़लाक़ से रहनुमाई हासिल करनी होगी।यह तहरीर आपके अख़लाक़-ए-करीमा के उन नायाब पहलुओं को उजागर करेगी जो इंसान के लिए असल कामयाबी की ज़मानत हैं।
अऊज़ु बिल्लाहि मिनश-शैतानिर-रजीम बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
दोस्तों! इस अम्र में कोई कलाम नहीं कि नबी-ए-अकरम अलैहिस्सलातु-वस्सलाम की ज़ात-ए-गिरामी तारीख़-ए-इंसानी की वह वाहिद हस्ती हैं जो शख़्सियत और किरदार व अमल की तमाम लवाज़मात व जुज़-इयात के साथ नौ-ए-इंसानी के जुमला अफ़राद व अश्ख़ास के लिए तक़लीद व रहनुमाई का क़ामिल तरीन नमूना हैं। आपकी ज़ात-ए-सतूदा सिफ़ात के हर पहलू को अपने अंदर बसाने की ज़रूरत है कि इसके बिना इंसान एक क़ामिल शख़्स हो ये तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता। दुनिया भर के मज़हबी रहनुमाओं में आप इस एतबार से मुनफ़रिद व यकता हैं कि आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम की हयात-ए-मुक़द्दस का एक-एक वाक़िया तारीख़ी एतबार से रौशन और वाज़ेह है। आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम की ज़ात-ए-अक़्दस की मुम्ताज़ियत और इनफ़िरादियत ऐसी है कि माज़ी क़रीब के एक मुम्ताज़ अमरीकी मौर्रिख एफ एच हित्ती (F.H.Hitti) को ये एतराफ़ करना पड़ा कि मुहम्मद सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम तारीख़ की मुकम्मल रौशनी में पैदा हुए। यानी आपकी मुक़द्दस ज़ात मुकम्मल नमूना-ए-अमल है। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने नबी-ए-अकरम अलैहिस्सलातु-वस्सलाम को एक मुकम्मल तरीन ज़िन्दगी अता की है जिसमें हर शोबा-ए-हयात से तअल्लुक रखने वाले अफ़राद के लिए रहनुमाई का बेहतरीन उसूल और क़ाबिल-ए-तक़लीद अमल इस तवाज़ुन और एअतदाल के साथ फ़राहम किया है कि वो इंसानी अक़्ल और फ़ितरत के ऐन मुताबिक़ हैं।
इस ज़िमन में इंसानियत पर आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम का अहसान अज़ीम ये है कि आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने अपने अमल व किरदार से अख़लाक़ियात का एक ऐसा और पाकीज़ा नमूना पेश फ़रमाया कि जिस पर अगर जुज़वी तौर पर भी अमल किया जाए तो दुनिया जन्नत का नमूना बन जाए। इसकी शहादत ख़ुद अल्लाह तबारक व तआला ने इन अल्फ़ाज़ में दी है।
(अल क़लम: 4) यानी ऐ महबूब! आप आला तरीन किरदार व अख़लाक़ के हामिल फ़र्दे फ़रीद हैं।
उस्वा-ए-हसना और ख़ुल्के -अज़ीम:
दोस्तों, नबी पाक अलैहिस्सलातु-वस्सलाम के उस्वा-ए-हसना और ख़ुल्के-अज़ीम को पहले हम समझते हैं। अल्लाह जल्ला शानुहु जो सारी क़ायनात का ख़ालिक़ और मालिक है उसने क़ुर्रा-ए-अर्ज़ पर इंसान को अपना ख़लीफ़ा और अशरफ़ुल-मख़्लूक़ात बनाया तो उसको क़ुरआन हकीम में बता दिया कि (वह अच्छी तरह समझ ले) वही (अल्लाह) तो है जिसने उसके लिए ज़मीन की सारी चीज़ें पैदा कीं। - (अल-बकरः: 29) मालिक हकीक़ी ने साथ ही इंसान पर यह बात भी वाज़ेह कर दी कि हमने आसमान और ज़मीन को, और जो कुछ उनके दरमियान है फुज़ूल
(बेकार और नाहक़) पैदा नहीं किया। - (साद: 27)
यहाँ सवाल पैदा होता है कि अल्लाह तआला ने दुनिया को फुज़ूल पैदा नहीं किया और ज़मीन की सारी चीज़ें इंसान के लिए पैदा कीं तो फिर इंसान को किस लिए पैदा किया और उसका मक़सद-ए-हयात क्या है? इसका जवाब हक़ तआला ने क़ुरआन हकीम में यूं दिया है। यानी मैंने जिन्नों और इंसानों को अपनी इबादत के लिए पैदा किया। (अज़-ज़रियत: 52) यूं तो क़ायनात का हर ज़र्रा अल्लाह वहदहु लाशरीक की इबादत व रियाज़त के ही लिए पैदा किया गया है लेकिन अल्लाह तआला ने बतौर ख़ास जिन्नों और इंसानों का ज़िक्र इसलिए फ़रमाया है कि उसने उन्हें अकल व शऊर अता कर के अपने आमाल का ज़िम्मेदार बनाया है और उन्हें यह आज़ादी बख़्शी है कि अगर वे अल्लाह तआला के पसन्दीदा दीन इस्लाम को क़बूल कर के सिर्फ़ उस ज़ात वाहिद की इबादत करना चाहें तो करें और अगर वे सरकशी और कुफ़्र व शिर्क के रास्ते पर चलना चाहें तो उसका भी उन्हें इख़्तियार है। यह अलग बात है कि इस आज़ादी और इख़्तियार के ग़लत इस्तेमाल की आख़िरत में बाज़-पुर्स होगी। चूंकि जिन्न/जिन्नात एक अलग मख़्लूक़ हैं इसलिए हम यहाँ सिर्फ़ इंसानों के बारे में ही गुफ़्तगू करेंगे।
अब देखना यह है कि 'इबादत' का मतलब और मफहूम क्या है? इबादत अरबी लुगात के मुताबिक़ 'अब्द' से माख़ूज़ है जिसका एक मआनी परस्तिश, बंदगी और पूजा है और दूसरा मआनी है आजिज़ाना इताअत और ब-रज़ा-ए-रग़बत फ़र्मांबरदारी। इस आयत-ए-मुबारक़ा में 'इबादत' के यही दोनों मआनी और मफहूम मुराद हैं।
अल्लाह तआला ने बनी नौ इंसान को अपने पैग़म्बरों (रसूलों और नबियों) के ज़रिये उसके मक़सद-ए-हयात और इबादत का मफहूम बताया। जिन्हें रोज़े अव्वल ही से वह इंसानों की हिदायत के लिए दुनिया के हर इलाक़े व ख़ित्ते में मबऊस फ़रमाता रहा यहाँ तक कि सातवीं सदी ईस्वी में ख़ालिक़ अर्ज़ व समा ने इस इंसान-ए-कामिल और पैग़म्बर-ए-आज़म को मबऊस फ़रमाया: जिस पर नुबुव्वत और रिसालत का सिलसिला ख़त्म हो गया और अल्लाह तआला ने अपनी पसन्दीदा मख़्लूक़ अशरफ़ुल-मख़्लूक़ात के लिए दायमी तौर पर दीन-ए-इस्लाम को पसन्द कर लिया। और प्यारे रसूल अकरम सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम को सूरह अल-माइदह की आयत, तर्जुमा: "आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया और मैंने तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम दीन पसन्द कर लिया। (कन्ज़-उल-ईमान)" के ज़रिये मुज़्दा-ए-जां फ़िज़ां सुनादी। दीन की तकमील के लिए अल्लाह तआला ने ख़ातिमुल-अंबिया हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम पर अपनी आख़िरी किताब 'क़ुरआन मजीद' नाज़िल फ़रमाई और उसे इस्लाम का अबदी मंशूर-ए-हिदायत क़रार दिया। इस मंशूर-ए-हिदायत में अल्लाह तआला ने हुज़ूर अकरम अलैहिस्सालतु-वस्सलाम पर ईमान लाने वालों से मुख़ातिब हो कर फ़रमाया:
तर्जुमा: "बेशक तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में बेहतरीन नमूना मौजूद है उसके लिए जो अल्लाह और आख़िरत के दिन की उम्मीद रखता है और अल्लाह को बहुत याद करता है। (कन्ज़ुल ईमान) गोया हक़ तआला ने दीन इस्लाम का दम भरने वालों पर वाज़ेह फ़रमा दिया है कि अगर उनके लिए कोई दाई और आलगीरी नमूना ए अमल है तो वह सिर्फ़ रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम की ज़ात गिरामी है और ज़िन्दगी के हर शोबे में वह हुज़ूर करीम की सीरत तय्यबह से रहनुमाई हासिल कर सकते हैं। हां उस शख्स के लिए यह ज़िन्दगी नमूना नहीं है जो अपने ख़ालिक और मालिक से ग़ाफिल हो और उससे कोई उम्मीद और यौम ए आख़िरत के आने की कोई तवक़्क़ो न रखता हो मगर यह हर उस शख्स के लिए ज़रूर नमूना हैं जो अल्लाह तआला को कसरत से याद करने और याद रखने वाला हो उसके फ़ज़्ल और करम का उम्मीदवार हो यौम ए आख़िरत पर पुख़्ता यक़ीन व ईमान रखता हो और इस बात पर भी कि आख़िरत में उसकी फलाह और निजात का इनहिसार ही इस पर है कि दुनिया में उसका तरीक ए ज़िन्दगी रसूलअल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के उस्वा हसनह के तरीक ज़िन्दगी से किस हद तक क़रीबतर रहा है।
अगर हम क़ुरआन हकीम और रसूल अकरम सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के उस्वा हसनह की रोशनी में "इबादत" के मानी और मफहूम पर ग़ौर करें तो यकीनी तौर पर इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात जैसे आमाल के अलावा दूसरे तमाम अवामिर व मनहिय्यात से इज्तिनाब भी इबादत ही में दाखिल है। रसूल पाक अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की ज़ात अक़दस तमाम कमालात व सिफ़ात की जामिअ और इंसानियत व अबदीयत की मिराज है। अल्लाह तआला ने आपको सारे जहान के लिए रहमत बनाकर भेजा है जैसा कि उसने सूरह अल-अंबियाह में आप अलैहिस्सालतु-वस्सलाम से मुखातिब होकर फ़रमाया है।
**वमाअरसल्नाका इल्ला रहमतन लिल आलमीन (आयत: 107)** यानी ऐ महबूब! हमने आपको तमाम जहानों के लिए रहमत बनाकर भेजा है। दर हक़ीकत हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की हयात ए अतहर का हर पहलू इस कदर पाकीज़ा और दरखशिंदा व ताबां है कि उसकी दरखशिंदगी और ताबानी से आंखें चुंधिया जाती हैं।
साथ ही इस हक़ीकत पर सिद्के दिल से ईमान लाना पड़ता है कि मग़फ़िरत और निजात का ज़रिया और नेक बख़्ती की अलामत हुज़ूर के नक़्श-ए-क़दम पर चलने में ही है। सरकार अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की हयात तय्यबा का सबसे नुमायां पहलू आपका उस्वा ए हसनह और ख़ुल्क ए अज़ीम है, सूरह अल-क़लम में हक़ तआला ने आपको मुखातिब करके फ़रमाया है: **इन्नका लअला ख़ुलुक़िन अज़ीम** - (अल-क़लम: 4) यानी ऐ नबी! आप अख़लाक के निहायत आला दर्जे पर हैं या आपके अख़लाक निहायत आला हैं।
खुद हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम ने इर्शाद फ़रमाया है: *यानी मैं इस वास्ते भेजा गया हूँ कि अख़लाकी खूबियों को कमाल तक पहुंचा दूं।(मुसनद इमाम अहमद) (बाज़ रिवायतों में "हुस्नुल अखलाक" की जगह "मकारिमुल अखलाक" आया है। इससे मानी और मफहूम में कोई फर्क़ नहीं पड़ता, मकारिम का मतलब भी "खूबियां" है।)
क़ुरआन हकीम में अल्लाह जल्ला शानुहू ने जहाँ एक जगह रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-के तरीक-ए-ज़िन्दगी या उस्वा को मुसलमानों के लिए ज़िन्दगी गुज़ारने का बेहतरीन नमूना करार दिया है। (अल-अहज़ाब : 31)
वहाँ दूसरी जगह यह भी इर्शाद फ़रमाया है: “जिसने रसूल सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम की इताअत की उसने दरअसल अल्लाह की इताअत की”। रसूल ही की इताअत से मुराद हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम के उस्वा हसनह की पैरवी और दूसरे तमाम दीनवी व दुनियावी उमूर में आपके अहकाम पर अमल है। गोया हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की इताअत अ़ैन दीन और असल दीन है। आप अलैहिस्सालतु-वस्सलाम से बेनियाज़ होकर रज़ा-ए-इलाही का हुsooल या बख़्शिश और निजात की उम्मीद ख़ाम ख़याली और ग़लत अंदेशी है।
दोस्तों, नबी ए रहमत, शफ़ी-ए-उम्मत सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के उस्वा-ए-हस्ना और ख़ुल्क़-ए-अज़ीम की क़दर तफ्सील अभी आपने ऊपर पढ़ी। अब मैं नबी पाक अलैहिस्सलातु-वस्सलाम के क़ौली व अमली अख़लाक़-ए-करीमाना को पेश करता हूँ। बग़ौर पढ़ें और अपनी ज़िंदगी में लाने की भरपूर कोशिश करें कि इसके बिना एक कामिल और सच्चा इंसान होना बईद-ए-क्यास मालूम होता है।
सिद्क़ व सदाक़त
दोस्तों! सिद्क़ व सदाक़त के मानी सच्चाई, रास्ती, रास्तबाज़ी, हक़गोई और किज़्ब की नक़ीद हैं। और ये अख़लाक़-ए-हस्ना का सबसे आला और बेहतरीन वस्फ़ है। अल्लाह तआला ने ये वस्फ़ अपने हर पैग़ंबर की फ़ितरत में वदीअत किया था। दरअसल ये ऐसा वस्फ़े जमील है कि इसके किसी पैग़ंबर (रसूल और नबी) की ज़ात से अलग होने का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता। अमानत व दयानत और इफ़ा-ए-अहद वग़ैरा भी इस वस्फ़ की शाख़ें हैं।
रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम की शान-ए-सदाक़त व अमानत ये थी कि बदतरीन दुश्मन भी आपके इस वस्फ़ का एतराफ़ करते थे। हुज़ूर सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम की हक़गोई और अमानतदारी की शोहरत आपके ऐलान-ए-नुबूव्वत के बाद ही नहीं बल्कि उससे पहले भी मक्का के घर-घर में फैल गई थी और क़ौम का बच्चा-बच्चा आपको सादिक़ और अमीन के लक़ब से पुकारता था।
हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम पर जब पहली वही नाज़िल हुई तो नुबूव्वत के बार-ए-गिरां से आपकी तबअ-ए-मुबारक में बेचैनी पैदा हुई। इस हालात में आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम घर तशरीफ़ लाए और रफ़ीक़ा-ए-हयात उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ख़दीजा अल-कुबरा रज़ियल्लाहु अन्हा को नुज़ूल-ए-वही का माजरा सुनाया। तो उन्होंने आपको मुख़ातिब होकर बे-साख़्ता इन अल्फ़ाज़ में आपके अख़लाक़-ए-हस्ना की शहादत दी:
“आप ग़म न खाएं, अल्लाह तआला आपको कभी ज़ाया नहीं करेगा बल्कि आपको सरफ़राज़ फ़रमाएगा क्योंकि आप अकरबा से हुस्न-ए-सुलूक (सिला रहमी) करते हैं, हमेशा सच बोलते हैं, यतीमों और मिस्किनों की दस्तगीरी फ़रमाते हैं, मेहमाननवाज़ी करते हैं, गिरे-पड़े लोगों (मुहताजों व दरमंदों) की मदद करते हैं। आप अमानतदार, ख़ुश-ख़िसाल, नेक-फ़ितरत और बुलंद हौसला हैं।” (सहीहैन)
उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ख़दीजा अल-कुबरा रज़ियल्लाहु अन्हा ने जो ख़साइल-ए-हमीदा प्यारे रसूल मक़बूल सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के लिए इस्तेमाल की हैं, ये सब आपके अंदर बचपन से मौजूद थीं।
दोस्तों!नबी करीम सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के सिद्क़ व सच्चाई का एक और वाक़िया आपके गोश गुज़ार करता हूँ।हुज़ूर नबी करीम अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की रास्त गुफ़्तारी की ये कैफ़ियत थी कि मज़्ज़ाह के वक्त भी आपके अल्फ़ाज़ सच्चे होते थे और आपकी ज़बान-ए-मुबारक से कोई ग़लत या ख़िलाफ़े-हक़ीक़त बात कभी नहीं निकलती थी। आप सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम कभी इशारा, किनाया में भी कोई ग़लत बात किसी को न कहते थे।
आप सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के और दीन-ए-हक़ के दुश्मन, कुफ़्फ़ार-ए-क़ुरैश ने आपको साबी (बे-दीन), मजनून, शायर, जादूगर और काहिन तक कहा लेकिन इनमें से किसी को आप सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम पर झूठ की तोहमत लगाने की जुर्रत नहीं हुई।
अबू जहल इस्लाम और दाई-ए-इस्लाम का खुला हुआ दुश्मन था, लेकिन उसको भी इस बात का यक़ीन-ए-मुहकम था कि मुहम्मद अरबी सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम सच्चे और सादिक़ इंसान हैं।
क़ाज़ी अयाज़ ने किताब-ए-शिफ़ा में हज़रत अली करमल्लाहु वज्ह का ये बयान नक़्ल किया है कि एक मर्तबा अबू जहल ने जनाब-ए-रिसालत मआब सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम से मुख़ातिब होकर कहा:
“मैं तुम्हें झूठा नहीं कहता, बल्कि जो चीज़ तुम लेकर आए हो, मैं उसे सही नहीं मानता।”
इसी मौक़े पर क़ुरआन हकीम की यह आयत करीमा नाज़िल हुई।
तर्जुमा: हम जानते हैं कि उनकी बातें तुम्हें रंजीदा करती हैं। तो बेशक यह तुम्हें नहीं झुठलाते बल्कि ज़ालिम अल्लाह की आयतों का इंकार करते हैं। (कंजुल ईमान)
यह रिवायत तिर्मिज़ी ने अपनी "जामे" में और हाकिम ने अपनी "मुसतद्रक" में भी नक़्ल की है।
इब्न जरीर तबरी ने अपनी तफ़्सीर में एक रिवायत नक़्ल की है कि "इब्न शरीक साक़फी ग़ज़वा-ए-बदर के बाद अबू जहल से तन्हाई में मिला और पूछा, 'ऐ अबुल हकम, मुझे सच-सच बता दे कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) सच्चे हैं या झूठे।' अबू जहल ने जवाब दिया, 'वल्लाह, मुहम्मद (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) सच्चे हैं। वह कभी झूठ नहीं बोलते।' (मफहूम)"
दोस्तों:मज़कूरा बालागुफ्तगू से आपको यह अच्छी तरह मालूम हो गया होगा कि हमारे सरकार, हुस्न-ए-अख़लाक़ के पैकर, सरवर-ए-कायनात (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) सिद्क़ व सदाक़त और रास्तगोई व हक़बयानी में अपनी मिसाल आप थे!
दोस्तों, आज के इस पुरफितन दौर में लोग इस क़दर झूठ और किज़्ब बयानी करते हैं जैसे सच को ज़मीनबोस हुए सदियां बीत गई हों। किज़्ब बयानी का बाज़ार इस क़दर गर्म हो चुका है कि झूठ बोलते हुए शर्म-ओ-आर तक महसूस नहीं हो रही है। अब लोग खुले आम मजमा-ए-आम में गला फाड़-फाड़ कर झूठ बोल रहे हैं, जबकि इसके सामने वाला इंसान उसके झूठ को जान भी रहा होता है।
खुदारा मुसलमानों!
सिद्क़ व सच्चाई को अपना शिआर बनाओ और झूठ से ऐसे ही नफ़रत करो जैसे कि हमारे प्यारे रसूल (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) ने की है। और सच्चाई को इस क़दर अपने से क़रीब करो जिस तरह पैग़ंबरान-ए-इस्लाम और हमारे नबी करीम (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) ने किया है। तभी जाकर तुम कामयाब और कामरान बन सकते हो। आला अख़लाक़ व किरदार अपनाने के लिए ज़रूरी है कि झूठ से नफ़रत की जाए और सच से मोहब्बत!
जूदो सख़ावत
दोस्तों! अल्लाह तआला की राह में या दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि मिस्कीनों, यतीमों, हाजतमंदों और नेकी के दूसरे कामों में ख़ुशदिली से खर्च करने का नाम सख़ावत है। बज़्ल व सख़ा, जूद व अता, निफाक़ और सदक़ा इसके मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ हैं। अख़लाक़ व किरदार में दूसरों की इमदाद व इआनत के एतबार से यह सबसे आला सिफ़त है। जूद व अता, सदक़ा व ख़ैरात, सख़ा व सख़ावत रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) की फितरत-ए-करीमा थी।
आपने अपनी पूरी ज़िंदगी में किसी हाजतमंद के मांगने पर "नहीं" का लफ़्ज़ नहीं फ़रमाया। आपके पास जो चीज़ होती, साइल को दे देते। अगर कुछ न होता तो ग़मख़्वारी के लहजे में उसकी तस्सली कर देते और उससे वादा कर लेते कि आइंदा किसी मौक़े पर आना।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) का बयान है कि रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) तमाम लोगों से बढ़कर सख़ी थे और रमज़ान के महीने में तो आप और ज़्यादा सख़ावत फ़रमाया करते थे।
फि-ल-हक़ीक़त, हुज़ूर (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) का सहाब-ए-सख़ावत हमेशा हर हाजतमंद और बेसहारा पर बरसता रहता था। हुज़ूर (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) लोगों को भी सदक़ा व ख़ैरात की तल्क़ीन करते रहते थे और फ़रमाते थे:
*सदक़ा से इंसान का माल कम नहीं होता*।
दोस्तों! हुज़ूर-ए-रहमत-ए-आलम (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) की सख़ावत व अता और इमदाद व इआनत की दो मिसालें आपके सामने पेश करता हूँ...
पढ़ें और कोशिश करें कि प्यारे करीम आका (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) की इस सुन्नत मुबारक को भी अपनी ज़िंदगी में शामिल कर सकें।
हज़रत अबू-सईद-खुदरी (रज़ियल्लाहु-अन्हु) बयान करते हैं: एक बार अंसार में से कुछ लोगों ने रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) से कुछ मांगा। आपने उन्हें दिया। उन्होंने दोबारा हाथ फैलाया। आपने दो बार उन्हें अता फ़रमाया। वह बार-बार सवाल करते रहे और आप अता फ़रमाते रहे, यहाँ तक कि जो कुछ आपके पास था वह सब ख़त्म हो गया। इसके बाद आपने उनसे फ़रमाया, "तुम लोग इत्मिनान रखो, जो कुछ मेरे पास होगा, तुमसे बचाकर नहीं रखूंगा।" (सहीहैन)
हज़रत-जाबिर (रज़ियल्लाहु-अन्हु) ब्यान करते है: एक बार रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम ने खुत्बे में एलान फ़रमाया: "मैं मोमिनों से उनकी जानों से भी ज़्यादा क़रीब हूँ (ख़ुद उनसे बढ़कर उनका भला चाहने वाला हूँ)। तो जो मुसलमान इस हाल में दुनिया से रुख़्सत हो जाए कि उस पर क़र्ज़ हो और वह इतना माल न छोड़ जाए जिससे क़र्ज़ अदा हो सके, तो उसका क़र्ज़ अदा करना मेरे ज़िम्मे है। और जो तरक़ा (जायदाद) छोड़े वह उसके वारिसों का हक़ है।" (सहीह बुखारी)
अफ़्व व दरगुज़र:
दोस्तों, नबी-ए-रहमत, ताजदार-ए-रिसालत, हुस्न-ए-अख़लाक़ व किरदार के पैकर, सरवर-ए-कायनात (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) के अख़लाक़-ए-करीमा बेहिसाब और लातादाद गोशों को समेटे हुए हैं, और सबको यहाँ बयान करना मुमकिन भी नहीं है। इसलिए अब मैं एक आला सिफ़त, अफ़्व व दरगुज़र को बयान करके अपनी गुफ़्तगू ख़त्म करता हूँ।
दुश्मनों और ग़ैरों की ज़्यादतियों और ग़लतियों को माफ़ कर देना और दुश्मनों पर क़ाबू पाकर उन्हें माफ़ कर देना अफ़्व है। इसे अल्लाह तआला ने निहायत आला दर्जे की अख़लाक़ी सिफ़त क़रार दिया है, ऐसी सिफ़त जो गुनाहों की माफ़ी और अल्लाह तआला की रज़ामंदी का बाइस बनती है। ख़ालिक-ए-कायनात ने रहमत-ए-आलम (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) को अफ़्व व दरगुज़र से ख़ास तौर पर मुत्तसिफ़ किया था।
आप अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की हयात-ए-तय्यिबा में अफ़्व व दरगुज़र के लातादाद वाक़ेआत मिलते हैं। उनमें से कुछ सुनें और अपने दिलों व ज़ेहनों को रौशन करें और अपने अख़लाक़ को भी इस तरह नूरानी बनाएँ।
मुशरिकीन-ए-क़ुरैश तेरह साल तक रसूल-ए-अकरम (अलैहिस्सालतु-वस्सलाम) और आप पर ईमान लाने वालों पर तरह-तरह के ज़ुल्म करते रहे। उन्होंने आपको गालियाँ दीं, बुरे-बुरे नाम दिए, (नाऊज़ुबिल्लाह) कभी जादूगर, कभी शायर, और कभी मज़नून कहा। आपको मारने की धमकियाँ दीं, दावत-ए-तौहीद का मज़ाक उड़ाया, रास्तों में कांटे बिछाए, जिस्म-ए-अक़दस पर नजासतें फेंकीं, गले में फंदा डाला, और पीठ पर (हालत-ए-नमाज़ में) ऊँट का ओझ रखा।
तीन बरस तक शिअब-ए-अबी तालिब में महसूर रखा। ज़ुल्म-ओ-सितम का कोई ऐसा तरीक़ा न था जो उन्होंने हज़ूर (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) और दूसरे अहल-ए-ईमान पर न आज़माया हो।
यह उनका ज़ुल्म-ओ-ज़ोर ही था जिसकी वजह से अहल-ए-ईमान की एक बड़ी तादाद रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इशारे पर मक्का से हिजरत करके हबशा चली गई। यहाँ तक कि कुछ साल बाद आपने बाक़ी सहाबा को भी यसरब (मदीना) की तरफ़ हिजरत करने की इजाज़त दे दी और फिर ख़ुद भी इज़्न-ए-इलाही पाकर मक्का से हिजरत करके यसरब तशरीफ़ ले गए (और उसे मदीना-ए-नबी बना दिया)।
लेकिन हिजरत के बाद भी मुशरिकीन-ए-मक्का को मुसलमानों का मदीना में अमन से रहना गवारा न हुआ, और वे अपनी जारहाना कार्रवाईयों के ज़रिए मुसलमानों को सताते रहे।
8 हिजरी में जब मक्का फतह हुआ, तो हक़ और अहल-ए-हक़ के यह बदतरीन दुश्मन पूरी तरह रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम) की रहमत व करम पर थे।
दस हज़ार से ज़्यादा मुजाहिदीन आपके हमराह थे, और दुनिया की कोई ताक़त आपको इन दुश्मनों से इंतिक़ाम लेने से नहीं रोक सकती थी। आपका एक इशारा ही इन सबको ख़ाक-ओ-ख़ून में लोटाने के लिए काफ़ी था।
लेकिन आपके अफ़्व व करम की शान देखिए कि जब सब जाबिरान-ए-क़ुरैश ख़ौफ़ से थर-थर कांपते हुए आपके सामने पेश हुए, तो आपने फ़रमाया:
"आज" मैं तुमसे वही बात कहता हूँ जो मेरे भाई यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाइयों से कही थी, "आज तुम पर कोई इल्ज़ाम नहीं (कोई बाज़पुर्स नहीं, कोई मुआख़ज़ा नहीं)। अल्लाह तुम्हें माफ़ करे। वह सबसे बढ़कर करम करने वाला है। जाओ, तुम सब आज़ाद हो।" (सीरतुन्नबी)
रईस-उल-मुनाफ़िक़ीन अब्दुल्लाह बिन उबई बज़ाहिर तो मुसलमान हो गया था, लेकिन बातिनी तौर पर इस्लाम और रसूल-ए-अकरम अलैहिस्सलातु-वस्सलाम से बुग़्ज़ रखता था। वह मरते दम तक अहल-ए-हक़ के खिलाफ़ साज़िशों में मशगूल रहा। ग़ज़वा-ए-उहद में वह अपने तीन सौ साथियों को लेकर लश्कर-ए-इस्लाम से अलग हो गया, हालाँकि दुश्मन की कसीर तादाद के मुक़ाबले में एक-एक मुजाहिद की सख़्त ज़रूरत थी। वाक़िया-ए-इफ़्क़ में उसने उम्मुल मोमिनीन हज़रत आइशा सिद्दीका रज़ियल्लाहु अन्हा पर तोहमत लगाई, जिससे हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम को सख़्त अज़ियत पहुँची। फिर उसने हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम और मुहाजिरीन सहाबा के खिलाफ़ निहायत घटिया अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए। हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम उसकी तमाम ज़लील हरकतों से दरगुज़र फ़रमाते रहे। यहाँ तक कि जब 9 हिजरी में वह फौत हुआ, तो हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने उसके बेटे (मुसलमान फ़र्ज़ंद) की दरख़्वास्त पर अपना कुरता उसके कफ़न के लिए अता फ़रमाया। फिर उसकी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाने के लिए तशरीफ़ ले गए।
उस वक़्त उसकी मय्यत क़ब्र में उतारी जा चुकी थी। आप सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम ने उसे क़ब्र से निकलवाकर अपने घुटनों पर रखा, अपना कुरता उसे पहनाया और अपना लुआब-ए-दहन उस पर लगाया। फिर उसकी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाने के लिए खड़े हुए। इस मौके़ पर हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने हुज़ूर सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम को उसकी मुनाफ़िक़ाना हरकतों की तरफ़ तवज्जो दिलाई, लेकिन आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम मुस्कुराते रहे और फिर फ़रमाया, "अगर मुझे इख़्तियार दिया जाता कि सत्तर मरतबा से ज़्यादा इस्तेग़फार करने से इसकी मग़फ़िरत हो जाएगी, तो मैं इसके लिए भी तैयार हूँ।" आपने उसकी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ा दी (अगरचे आइंदा के लिए ऐसे लोगों की नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाने से मना कर दिया गया)।
मिश्क़ात शरीफ़ में हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से यह हदीस मुत्तफ़क़ इलैह मरवी है: "हज़रत अनस फरमाते हैं, मैंने नबी करीम अलैहिस्सलातु-वस्सलाम की दस साल खिदमत की। कभी मुझे 'उफ़' न फ़रमाया और न ही यह कि 'तुमने यह क्यों किया' और न यह कि 'क्यों न किया।'" (मुस्लिम, बुखारी)
इस हदीस करीमा में चंद बातें ज़ेरे ग़ौर हैं, समाअत करें। अव्वल यह कि हुज़ूर अनवर के मदीना तैय्यबा में तशरीफ़ लाने पर हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु की उम्र आठ साल थी। उनके वालिदैन उस वक़्त हुज़ूर अनवर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की खिदमत में उन्हें लाए और बोले कि हमने उन्हें आपकी खिदमत के लिए वक़्फ़ कर दिया। वफ़ात शरीफ़ 11 हिजरी में हुई। वफ़ात शरीफ़ तक हुज़ूर अनवर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की खिदमत में रहे। इससे मालूम होता है कि हज़रत अनस अपने लड़कपन के दौर में ही खिदमत-ए-रसूल के लिए अपने आप को वक़्फ़ कर चुके थे। दूसरी बात यह कि हज़रत अनस का कहना है कि प्यारे आका ने मुझे 'उफ़' तक न कहा, हालाँकि मैं कम उम्र भी था और कम समझ भी। मुझसे कुसूर भी होते थे और कभी कुछ नुक़सान भी हो जाता था, जैसे कोई चीज़ टूट जाना वग़ैरा। मगर इस सरापा-ए-रहम-ओ-करम ने मुझे कभी झिड़का नहीं और मलामत के तरीके पर यह न फ़रमाया कि 'तुमने यह क्यों कर दिया' या 'यह क्यों छोड़ दिया।
इस हदीस पाक में एक लफ़्ज़ आया है 'उफ़', जिसका तर्जुमा उर्दू में है 'उफ्फोह'। यह सरज़निश और मलामत के वक्त बोला जाता है। यहाँ दुनियावी कामों में 'उफ़' न फ़रमाना मुराद है। शरई ग़लती पर पकड़ करना तो इस्लाह है। (मिरक़ात व शरह)
रिवायत है, इन्हीं से फरमाते हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम लोगों में सबसे अच्छे अख़लाक़ वाले थे। हुज़ूर ने मुझे एक दिन किसी काम के लिए भेजा। मैंने कहा, "अल्लाह की क़सम, न जाऊँगा।" और मेरे दिल में यह था कि उस काम के लिए जाऊँ, जिसका मुझे रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम ने हुक्म दिया। चूंकि मैं रवाना हो गया, यहाँ तक कि मैं कुछ बच्चों पर गुज़रा, जो बाज़ार में खेल रहे थे। अचानक रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम ने मेरे पीछे से मेरी गर्दन पकड़ी। फरमाते हैं कि मैंने हुज़ूर की तरफ़ देखा, आप मुस्कुरा रहे थे। फ़रमाया, "ऐ अनस! क्या तुम वहाँ जा रहे हो, जहाँ जाने का मैंने तुम्हें हुक्म दिया था?" मैंने अर्ज़ किया, "हाँ, या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम, जा रहा हूँ।"
(मुस्लिम) व मिरआत,)
हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु का यह जवाब ना-फ़रमानी या हुक्म की मुखालिफ़त नहीं, बल्कि नाज़-बरदार, बे-नियाज़ करीम पर नाज़मंदाना नाज़ है।
शेर:
कुशादा दस्त-ए-कर्म जब वो बे-नियाज़ करे,
नियाज़मंद न क्यों आजिज़ी पे नाज़ करे।
(इक़बाल)
जैसे बच्चे माँ-बाप पर ज़िद करते हैं और कहते हैं कि "हम तो नहीं करते", उसी तरह यह बात कही गई। यह "वल्लाह" क़सम के लिए नहीं कहा गया कि इस पर क़सम के अहकाम जारी हों, बल्कि बिला-क़स्द यह लफ़्ज़ बोला गया है। (अल-लमआत)
इख़्तितामिया
दोस्तों! यह एक हक़ीक़त है कि किसी भी क़ौम, मिल्लत और मुआशरे में इस्लामी उसूल व ज़वाबित और तौर-ओ-तरीक़ा उसी वक़्त नज़र आ सकते हैं जब वह क़ौम रहमत-ए-आलम अलैहिस्सलातु-वस्सलाम के उस्वा-ए-हसना को अपने लिए मशअल-ए-राह बनाए, क्योंकि इसकी सआदत और निजात-ए-उख़रवी का इनहिसार इसी पर है।
दूसरे अल्फ़ाज़ में, वह अख़लाक़-ए-हसना अपनाए और बुरे अख़लाक़ से अपनी हिफ़ाज़त करे। इसके बग़ैर इस्लामी निज़ाम-ए-ज़िंदगी का तसव्वुर भी बेकार है। दीन में अख़लाक़ को जो अहमियत और दर्जा हासिल है, अगर हम इसे नफ़्सियाती नुक़्त-ए-नज़र से देखें तो यक़ीनन इस नतीजे पर पहुँचेंगे कि अच्छे अख़लाक़ का मालिक इंसान जहाँ आख़िरत में सुरखुरू होगा, वहीं दुनिया में भी उसे सुकून-ए-क़ल्ब और राहत-ए-दिल हासिल होगी। साथ ही, दूसरों के लिए उसका वजूद बाइस-ए-रहमत होगा।
इसके बरअक्स, जिस शख़्स के अख़लाक़ बुरे होंगे, वह न सिर्फ़ खुद सुकून-ए-क़ल्ब से महरूम रहेगा, बल्कि उसके मुताअल्लिकीन भी ज़िंदगी के हक़ीक़ी लुत्फ़ से दस्त-बर्दार रहेंगे।
खुलासा-ए-कलाम
एक हक़ीक़ी इस्लामी मुआशरा जिन अनासिर से तशकील पाता है, वह तीन हैं:
1. क़ुरआन-ए-हकीम
2. रसूल-ए-अकरम अलैहिस्सलातु-वस्सलाम के इर्शादात व नसाइह
3. रसूल-ए-अकरम अलैहिस्सलातु-वस्सलाम की ज़ात-ए-गिरामी और आपकी हयात-ए-तैय्यबा का अमली नमूना, जो हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम के अख़लाक़-ए-अज़ीमा या उसव-ए-हसना से इबारत है।
जहाँ तक क़ुरआन-ए-हकीम का ताल्लुक़ है, यह अल्लाह तआला की आख़िरी किताब है जो ख़ातिम-उल-अंबिया वल-मुर्सलीन सल्लल्लाहु -अलैहि-वसल्लम के ज़रिए उम्मत तक पहुँची। हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम इस की अमली तफ़सीर थे।
उम्मुल मोमिनीन हज़रत आइशा सिद्दीका रज़ियल्लाहु अन्हा से किसी ने रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के अख़लाक़ के बारे में पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया:
"कान-खुलुकुल-क़ुरआन।"
उम्मुल मोमिनीन के इस जवाब में एक जहान छुपा है, यानी हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम के अख़लाक़, क़ुरआनी अख़लाक़ थे। जिन बातों का अल्लाह तआला ने क़ुरआन-ए-हकीम में हुक्म दिया है, हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने उन पर अमल करके दिखाया। और जिन बातों से अल्लाह तआला ने मना फ़रमाया है, हुज़ूर अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने खुद भी उनसे हमेशा एहतियात बरती और उम्मत को भी उनसे बचने की तल्कीन फ़रमाई।
मुआशरा की तशकील का दूसरा अनसिर
रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के इर्शादात हैं। अख़लाक़ से मुताल्लिक़ जो इर्शादात हदीस की किताबों में महफूज़ हैं, वह दो क़िस्म के हैं:
1. वह इर्शादात, जिनमें हुज़ूर सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम ने हुस्न-ए-अख़लाक़ की फज़ीलत को उमूमी तौर पर बयान फ़रमाया।
2. मक़ारिम-ए-अख़लाक़ की खास-खास किस्मों या शाखों की अहमियत और फज़ीलत और उनके अजर-ओ-सवाब का ज़िक्र फ़रमाया।
मसलन:
खुशअख़लाक़ी,
अफ़्व-ओ-दरगुज़र,
हिल्म-ओ-बुर्दबारी,
सिला-रहमी,
खुशकलामी,
वालिदैन की इताअत,
रहम-ओ-करम,
गुस्से को पी जाना,
हया व पर्दा,
बाहमी सुलह कराना,
रास्तगोई,
अहद की पाबंदी,
अयादत व ताज़ियत,
महमां नवाज़ी,
सख़ावत,
मियाना रवी,
इजाज़त तलब करना,
हैवानों पर रहम करना,
ज़बान की हिफ़ाज़त,
सादगी,
इस्तिग़ना,
ग़ुरबा की इआनत।
अकल-ए-हलाल,
तर्क-ए-हराम,
मशवरा सलाम,
बच्चों पर शफक़त,
अदल-ओ-इंसाफ,
इंक्सार-ओ-तवाज़ो,
बाहमी इमदाद वग़ैरह।
दूसरे वो इर्शादात जिनमें आप अलैहिस्सलातु-वस्सलाम ने बुराइयों और बद-किरदारी से बचने की ताकीद फ़रमाई है, मसलन:
ख़यानत,
क़त-ए-रहमी,
तमस्ख़ुर,
ग़ीबत,
बेज़ारी,
बुख़्ल,
हसद,
बुग़्ज़-ओ-क़ीना,
तबर्राबाज़ी,
रियाकारी वग़ैरह।
इस्लामी मुआशरे का तीसरा अनसिर रसूल-ए-रहमत सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम की ज़ात-ए-गिरामी और आपकी ज़िंदगी का अमली नमूना या उसव-ए-हसना है। यानी जिस काम को करने का या जिस बात पर अमल करने का आपने हुक्म दिया और खुद भी उस पर अमल किया, उसे ही अल्लाह तआला ने उम्मत के लिए बेहतरीन नमूना क़रार दिया।
दोस्तों! अभी आप के सामने अख़लाक़-ए-रसूल मक़बूल अलैहिस्सलातु-वस्सलाम की चंद झलकियाँ पेश की गईं। कोशिश करें इन्हें अपनाने की। अगर एक सच्चा पक्का मुसलमान बनना है, तो अख़लाक़-ए-हसना को अपनाना ही होगा, क्योंकि यही कामयाबी की ज़ामिन है। इसके बगैर कामयाबी का तसव्वुर भी ग़ैर-मुमकिन है। अल्लाह करीम हम सब को रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम के उस्वा-ए-हसना पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और कामयाबी व कामरानी बख़्शे। आमीन या रब्बल आलमीन
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