eid miladunnabi khushi ke izhar ka din और मोमिन मुनाफ़िक़ के पहचान का भी

जानिए इस लेख में बारहवीं शरीफ के मौक़े पर यह साबित हो जाता है कि कुछ लोगों के दिलों में नबी से मुहब्बत नहीं, बल्कि बुग़्ज़ और नफ़रत भरी हुई है।

ईद मीलाद खरे खोटे की पहचान है इस पोस्ट में हम यही बताने वाले हैं कि ईद मीलाद यानी 12 रबीउल अव्वल दरअसल मोमिन और मुनाफ़िक़ की पहचान का दिन है

यह वह दिन है जब मोमिन हुज़ूर की आमद की खुशियाँ मनाते हैं तो वहीँ मुसलमानी का दावा करने वाले मुनाफ़िक़ ख़ुशी से दूर ग़म में डूबे हुए होते हैं  कैसे जानिए इस तहरीर में।

बारहवीं शरीफ खरे और खोटे की पहचान का दिन

इस्लाम महज़ चंद ज़ाहिरी रसूम ओ इबादत का नाम नहीं बल्कि इसकी रूह और बुनियाद नबी आख़िरुज़्ज़मां आका ए दो जहां मुस्तफा जाने रहमत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ाते अक़्दस से ग़ैर मशरूत मुहब्बत अदब और क़ल्बी वाबस्तगी पर क़ायम है।

यह वह मर्कज़ी नुक़्ता है जिसके गिर्द ईमान का पूरा निज़ाम गर्दिश करता है।

अगर यह मर्कज़ कमज़ोर पड़ जाए या दिल इसकी हरारत से ख़ाली हो तो इबादत के फलक बोस पहाड़ भी राख के ढेर से ज़्यादा हैसियत नहीं रखते।

मुआशरे की हक़ीक़त

इसी उसूल की रोशनी में जब हम अपने मुआशरे पर नज़र डालते हैं तो एक अजीब मंज़र दिखाई देता है।

बज़ाहिर कलिमा पढ़ने वाले इस्लाम के कुछ ऐसे झूठे दावेदार भी हैं ख़ास तौर पर बदअकीदा जो साल के ग्यारह महीने अपनी मुनाफ़िक़त पर परदा डालने में कुछ हद तक कामयाब रहते हैं।

साल भर का फरेब जुबानी कलिमा गोई और ज़ाहिरी आमाल का पहाड़ यह गिरोह ज़ाहिरी आमाल को इस तरह सजा लेता है कि आम मुसलमान उनके फरेब में आ जाता है।

नमाज़ की पाबंदी

वह ऐसी नमाज़ें अदा करते हैं कि देखने वाला रश्क करे।

इतने लंबे सज्दे करते हैं कि उनकी पेशानियों पर सियाह दाग़ बन जाते हैं जिसे वह अपनी परसाई की सनद के तौर पर पेश करते हैं।

हज और उमरा की कसरत

वह हर साल हज और उमरे की सआदत हासिल करते हैं जिससे उनकी दींदारी का तअस्सुर मज़ीद गहरा होता है।

क़ुरबानी में रियाकारी

जब क़ुरबानी का मौक़ा आता है तो वह अक्सर दूसरों की बनिस्बत महंगा और ख़ूबसूरत जानवर ख़रीदते हैं।

इन सभी ज़ाहिरी आमाल के ज़रिए वह साल भर आम लोगों को यह मुग़ालता देने की कोशिश करते हैं कि वह सच्चे और पक्के मुसलमान हैं।

जबकि हक़ीक़त इसके बरअक्स होती है।

उनके दिल नबी ए अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत की बजाय बुग़्ज़ और हसद से भरे होते हैं।

जिसका सुबूत उनके पेशवाओं की किताबों में मौजूद गुस्ताख़ाना इबारतें हैं।

फैसले का दिन बारहवीं शरीफ

जब बारहवीं शरीफ को चोर पकड़ा जाता है।

उनकी साल भर की मुनाफ़िक़त और रियाकारी का ड्रामा इस वक़्त अपने अंजाम को पहुँचता है जब रबीउल अव्वल शरीफ का चाँद तुलूअ होता है।

यह महीना और ख़ास तौर पर इसकी बारहवीं तारीख एक ऐसी ईमानी कसौटी है जो खोटे और खरे को अलग कर देती है।

यह वह दिन है जब उनके दिल का चोर रंगे हाथों पकड़ा जाता है।

ईद ए मीलाद की ख़ुशी

जब पूरी उम्मते मुस्लिमा अपने आका ओ मौला सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की विलादत की ख़ुशी में जश्न मनाती है।

गलियाँ मुहल्ले और मकान सजाए जाते हैं।

जुलूस निकाला जाता है।

नअते पढ़ी जाती हैं।

दरूद ओ सलाम के नज़राने पेश किए जाते हैं।

तो यही नाम निहाद पारसा गिरोह एक अजीब कैफ़ियत का शिकार हो जाता है।

उनके चेहरों पर ख़ुशी के बजाय वहशत और बेज़ारी के आसार नुमायाँ होते हैं।

वह इस मुहब्बत भरे इज़हार को बिदअत गुमराही और हराम कहकर अपने दिल में छुपी नफ़रत और बुग़्ज़ का ग़ैर इरादतन इक़रार कर लेते हैं।

मुनाफ़िक़त का पर्दा फ़ाश

यह वह लम्हा होता है जब उनका सारा भरम टूट जाता है।

एक आम मुसलमान भी यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि जो शख़्स अपने नबी की पैदाइश के दिन ख़ुश नहीं हो सकता वह सच्चा उम्मती कैसे हो सकता है।

जिसके दिल में अपने आका के लिए मुहब्बत की एक रमक भी हो वह इस अज़ीम मौक़े पर ख़ुशियों के इज़हार से लातअल्लुक़ कैसे रह सकता है।

चुनाँचे बारहवीं शरीफ के मौक़े पर यह साबित हो जाता है कि उनके दिलों में अपने नबी से मुहब्बत नहीं बल्कि बुग़्ज़ और नफ़रत भरी हुई है।

और जब ईमान की बुनियाद ही मुन्हदम हो जाए तो उस पर खड़ी की गई इबादत की आलिशान इमारत ख़ुद बख़ुद ज़मीनबोस हो जाती है।

उनकी इबादतें बे असर

उनकी नमाज़ें बे रूह हैं।

क्योंकि नमाज़ तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आँखों की ठंडक है।

और यह उस नबी के यौमे विलादत की ख़ुशी से ही बेज़ार हैं।

उनका हज मक़बूल नहीं

क्योंकि हज का मक़सद भी मुहब्बते रसूल यानी मदीने मुनव्वरा की हाज़िरी के बग़ैर अधूरा है।

और यह अपने नबी से सच्चा क़ल्बी तअल्लुक़ ही नहीं रखते।

उनकी क़ुरबानी रियाकारी है

क्योंकि क़ुरबानी का फलसफ़ा हज़रत इसमाईल अलैहिस्सलाम की इताअत और क़ुरबानी को याद करना है जो नबी थे।

और यह ख़ातमुन्नबिय्यीन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तअज़ीम से ही आरी हैं।

रबीउल अव्वल आईना ए ईमान

रबीउल अव्वल का महीना उनके तमाम साल भर के आमाल को अकारत और बर्बाद कर देता है।

यह दिन एक आईना बनकर सामने आता है और उनकी बद अकीदगी और दिल की सियाही को पूरी दुनिया के सामने बे नक़ाब कर देता है।

यह बात अटल है कि इश्के मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ही दीन की असल है।

और इसके बग़ैर हर इबादत हर अमल और हर दावा बातिल और मर्दूद है।

इश्के मुस्तफा

मुहम्मद की मुहब्बत दीने हक़ की शर्ते अव्वल है

सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम

इसी में हो अगर ख़ामी तो सब कुछ नामुकम्मल है

शाएरे मश्रिक डॉक्टर इक़बाल

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