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Nabi ka name sunkar anguthon ko chumna: इस्लामी अदब, बरकतें और हदीस की दलील | फ़िक़्ह-ए-हनफ़ी के मुताबिक़ जाइज़ क्यों?

अंगूठों का चूमना

इस्लाम में नबी-ए-करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का नाम सुनकर अंगूठों को चूमने का अमल मोहब्बत और अक़ीदत की निशानी कैसे है? हदीस, फ़िक़्ह-ए-हनफ़ी (रद्द-उल-मुहतार) और हज़रत अबू बकर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की सुन्नत से जुड़ी दलीलें जानें। समझिए कि यह अमल बरकत व फ़ज़ीलत का ज़रिया क्यों है और इसे बिदअत या शिर्क कहना ग़लत क्यों है? अदब-ए-रसूल के इस इज़हार की शरई जाइज़त पर मुकम्मल तफ़सील। इस्लाम मोहब्बत और अदब का मज़हब है, जिसमें हजूर नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अकीदत और एहतराम हर मोमिन की पहचान है। नाम-ए-अकदस सुनकर अंगूठे चूमना, अदब-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और मोहब्बत-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इज़हार और, बरकत और फज़ीलत हासिल करने का ज़रिया है। इस अमल की दलील हदीस मुबारक और फ़िक़्ह-ए-इस्लामी में मौजूद है। 

नाम-ए-अकदस सुनकर अंगूठे चूमना

जाइज़ और बाइस-ए-बरकत है। चुनांचे फ़िक़्ह-ए-हनफ़ी की मो'तबर कुतुब (रद्द-उल-मुहतार,) में है कि पहली शहादत को सुनते ही "सल्लल्लाहु अलैक या रसूल अल्लाह" कहना, और दूसरी शहादत के वक्त "कुर्रतु अयनी बिका या रसूल अल्लाह" कहना मुस्तहब है। फिर दोनों आँखों पर दोनों अंगूठों के नाखून रखने के बाद ये कलिमात कहे जाएंः "अल्लाहुम्मा मतिनी बिस्समअि वलबसर।" तो ऐसे करने वाले के लिए हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जन्नत के क़ाएद बनेंगे। इसी तरह "तहतावी शरह मराक़ी अल-फलाह" (सफा 111-112) में लिखा है। 

नाम मुबारक सुनकर हज़रत अबू बकर ने अंगूठे चूमें 

हज़रत सिद्दीक़-ए-अकबर रज़ी अल्लाहु अन्हु ने अज़ान में हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नाम सुनकर दोनों अंगूठों को चूमकर अपनी आँखों से लगाया था। हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सवाल पर अर्ज़ की, "मैंने ये अमल बरकत के लिए किया है।" हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, "तुमने अच्छा किया। जो कोई ऐसा करेगा, उसकी आँख दुखने से महफूज़ रहेगी।" 

फ़ज़ाइल और अहादीस 

कुछ लोग कहते है कि इस मौज़ू की तमाम अहादीस ज़ईफ़ हैं। लेकिन ये उसूल सबको तस्लीम है कि फज़ाइल-ए-आमाल में ज़ईफ़ हदीस भी मानी जाती है।
अलावा अज़ीं, अहल-ए-सुन्नत का मौक़िफ़ ये है कि हमें हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नाम प्यारा लगता है, इसीलिए हम चूम लेते हैं। जिसको प्यारा नहीं लगता, वो न चूमे। और जो लोग नहीं चूमते, हम उन पर कोई फतवा नहीं लगाते और न चूमने पर मजबूर करते हैं। 
जो लोग अंगूठे चूमने को बिदअत और शिर्क कहते हैं, वो सख़्त ज़ियादती और शरीअत पर इफ़्तिरा करते हैं। क्योंकि किसी हदीस में नाम-ए-पाक सुनने पर अंगूठे चूमने की मुमानिअत नहीं आई। बल्कि हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तो ये फरमाया है कि "जिसने अपनी माँ के क़दमों को चूमा, उसने जन्नत की चौखट को चूम लिया।

खुलासा 

जब माँ के क़दमों के चूमने की ये अज़मत है, तो हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नाम-ए-अकदस को अकीदत, मोहब्बत और एहतराम की बुनियाद पर चूमने में हरज क्या है? 
दोस्तोंः नाम-ए-अकदस सुनकर अंगूठे चूमना न सिर्फ़ जाइज़ है बल्कि मोहब्बत और अकीदत का बेहतरीन इज़हार भी है। फज़ाइल-ए-अमाल में ज़ईफ़ हदीस कुबूल की जाती है, और शरियत में इसकी कोई मुमानिअत साबित नहीं है। हजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नाम सुनकर अदब और मोहब्बत के साथ अंगूठे चूमने का अमल बरकत का सबब है। 
जो लोग इस अमल को पसंद न करें, उन पर कोई दबाव नहीं, लेकिन इसे शिर्क या बिदअत कहना इल्म और शरियत के खिलाफ़ है। यह अमल हर उस शख़्स के लिए इज़हार-ए-मोहब्बत का जरिया है, जो अपने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से दिलोजान से मुहब्बत करता है।
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