अस्सलामु अलैकुम दोस्तों: इस तहरीर में, हम एक अहम हदीस मुबारक पर नज़र डालेंगे जो हज़रत अबू-दर्दा
(रज़ी अल्लाहु तआला अन्हु) से रिवायत की गई है। इस हदीस में, रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जुमे के दिन दुरूद शरीफ की कसरत करने का हुक्म फरमाया है। यह हदीस हमें अंबिया की जिस्मानी हयात, रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का उम्मतियों की आवाज़ सुनने की कुदरत, और जुमे के दिन की फज़ीलत के बारे में हमें मालूमात हासिल होती है।
हदीस शरीफ
जुमे के दिन मुझ पर कसरत से दुरूद भेजा करो क्यूंकि यह यौम ए मशहूद है। इस में फरिश्ते हाज़िर होते हैं। जो बंदा मुझ पर दुरूद पढ़े, उस की आवाज़ मुझ तक पहुँच जाती है, ख्वाह वह बंदा कहीं भी हो।
हज़रत अबू दरदा रज़ी अल्लाह तआला अन्हु से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः जुमा के दिन मुझ पर दरूद की कसरत करो, क्योंकि यह यौम-ए-मश्हूद (गवाही वाला दिन) है, जिसमें फ़रिश्ते हाज़िर होते हैं। कोई भी बंदा जो मुझ पर दरूद पढ़ता है, उसकी आवाज़ मुझ तक पहुँचती है, चाहे वह कहीं भी हो। हमने अर्ज़ कियाः या रसूलल्लाह ! क्या आपके विसाल (दुनिया से पर्दा फरमाने) के बाद भी? आप ने फ़रमायाः हाँ, मेरे विसाल के बाद भी। बेशक अल्लाह तआला ने ज़मीन को अंबिया के जिस्मों को खाने से हराम कर दिया है।
(सुनन इब्न माजह, तबरानी, तर्गीब, जिला अल-अफहाम इब्न क़ैय्यिम जौज़िया स. 74)
हदीस मुबारक से मालूम हिने वाले फ़वाइद
यह हदीस मुबारक, जिसे मुहद्दिसीन ने सही और इसकी सनद को जय्यद कहा है, से कुछ फ़ायदे हासिल होते हैं:
1. इससे साबित होता है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जिस्मानी हयात के साथ ज़िंदा हैं, क्योंकि रूह तो हर इंसान की ज़िंदा रहती है। लेकिन अगर अंबिया की हयात से मुराद यह ली जाए कि उनकी रूह ज़िंदा है, तो इसमें उनकी क्या ख़ासियत ? हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और दूसरे अंबिया की हयात की ख़ासियत यह है कि वे जिस्मानी तौर पर ज़िंदा हैं, जैसा कि शेख अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी ने "मदारिजुन्नुबुव्वत" (जिल्द 2, स. 444) में लिखा है। सहाबा के सवाल पर आप का फ़रमाना कि "अंबिया के जिस्म सही-सालिम बाक़ी रहते हैं" इसका साफ़ मतलब यह है कि अंबिया को वफ़ात के बाद अल्लाह तआला दूसरी हयात अता फ़रमाता है, जो पहली हयात की तरह हिस्सी और जिस्मानी होती है।
शेर
अंबिया को भी अजल आनी है लेकिन ऐसी कि सिर्फ़ आनी है, फिर इस आन केबाद उनकीहयात मिस्ले साबिक वह जिस्मानी है। औरों कीरूह हो कितनीही लतीफ़, उसके अजसाम कीकब सानी है।
इस हदीस से साफ़ तौर पर साबित हो गया कि हुजूर के लिए क़रीब और दूर सब बराबर है। कोई भी उम्मती चाहे रौज़ा-ए-शरीफ़ के क़रीब हो या दुनिया के किसी कोने से हुजूर को पुकारे, तो हुजूर खुद उसकी आवाज़ सुनकर फ़रियाद रसी फ़रमाएँगे।
सलाम
दूर व नज़दीक के सुनने वाले वह कान कान ए ला'ल ए करामत पे लाखों सलाम।
जुमा के दिन दरूद शरीफ़ की कसरत का फ़ज़ीलत
यूँ तो दरूद शरीफ़ हर वक़्त पढ़ना सवाब और दरजात की बुलंदी का सबब है, मगर जुमा जैसे अफ़ज़ल अय्याम में दरूद की कसरत की ख़ास फ़ज़ीलत आई है। "जामे सग़ीर" में एक रिवायत है कि जुमा के दिन दरूद पढ़ने वाले को हुजूर का ख़ास कुर्ब हासिल होगा (जामे सग़ीर, जिल्द 1, स. 54)। एक रिवायत यह भी है कि ऐसे शख़्स के लिए क़यामत के दिन हुजूर गवाह और शफ़ीअ होंगे। इसलिए जुमा के दिन और रात में दरूद शरीफ़ की कसरत करके हुजूर का ख़ास कुर्ब हासिल करना चाहिए।
4. इससे साबित हुआ कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम विसाल के बाद भी अपने रौज़ा-ए-अनवर में उसी तरह सुनते हैं, जिस तरह अपनी ज़ाहिरी हयात में सुनते थे। इसलिए "या रसूलल्लाह" कहकर फ़रियाद करने वाले की आवाज़ बेकार नहीं जाती, बल्कि हुजूर उसे सुनते भी हैं और मुश्किल-कुशाई भी फ़रमाते हैं। आप का यह इरशाद "इल्ला बलग़नी सौतहु" (मुझ तक उसकी आवाज़ पहुँचती है) इस बात के लिए काफ़ी है।
नतीजा
इस हदीस मुबारक से हमें यह सबक मिलता है कि जुमे के दिन दुरूद शरीफ की कसरत करनी चाहिए ताकि हमको रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कुर्ब हासिल हो और उनकी शफाअत के हकदार बनें। यह भी मालूम हुआ कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमारी आवाज़ सुनते हैं और हमारी मदद फरमाते हैं। लिहाज़ा, हमें इस अमल को अपनी ज़िंदगी में शामिल करना चाहिए और हर जुमे को दुरूद शरीफ की कसरत करनी चाहिए।
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