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islam mein waldain ka muqam quran ki आयत और हुज़ूर के इरशाद मुबारक से जानें

दोस्तों! आयत-ए-करीमा में माँ, बाप के साथ हुस्न-ए-सुलूक से पेश आने को कहा जा रहा है। दोस्तो! ये क़ायदा है कि जब माँ, बाप जवान होते हैं और अपनी ज़रूरतों

अज़्मत-ए-वालिदैन  

इस मज़मून में माँ और वालिद की अज़्मत को क़ुरान और हदीस की रौशनी में बताया गया है।  
दोस्तों! अल्लाह का इरशाद मुबारक कुरान में है “वबिल वालेदैने इहसाना”यह कुरान मुक़द्दस की आयत मुबारक है। इस में इस्लामी तमद्दुन का वो बुनियादी ज़ाबिता बयान किया गया है। जिस के तुफैल  हमारा इस्लामी मुआशरा अक़्वाम-ए-आलम के दरमियान एक मुनफ़रिद मुक़ाम रखता है। इस आयत-ए-मुबारक में बड़े दिलकश अंदाज़ में बताया जा रहा है कि अपने माँ-बाप के साथ कैसा बरताव होना चाहिए? 

मां बाप की खिदमत ऐसे करो के  उनके मुंह से दुआ निकले 

दोस्तों! आयत-ए-करीमा में माँ, बाप के साथ हुस्न-ए-सुलूक से पेश आने को कहा जा रहा है। दोस्तो! ये क़ायदा है कि जब माँ, बाप जवान होते हैं और अपनी ज़रूरतों के ख़ुद कफ़ील होते हैं उस वक़्त तो बच्चे उमूमन उन के फ़रमाँबरदार होते हैं। लेकिन जब बुढ़ापा आ जाता है, सेहत बिगड़ने लगती है, ख़ुद रोज़ी कमाने से आजिज़-ओ-क़ासिर हो जाते हैं और औलाद के सहारों के मुहताज हो जाते हैं, उस वक़्त सआदतमंद औलाद का फ़र्ज़ है कि उन की ख़िदमतगुज़ारी और दिलजुई के लिए अपनी कोशिशें वक़्फ़ कर दे। अगर मर्ज़ तूल पकड़ता जाए और उन का मिज़ाज चिड़चिड़ा होने लगे और वो बात-बात पर ख़फ़ा होने लगें तो इन हालात में भी उन की नाज़बर्दारी में कोई कसर न उठा रखे। क़ुरान ख़बरदार कर रहा है कि ऐ लोगो! उकताकर या उन के ख़फ़ा होने से आशुफ़्ता-ख़ातिर हो कर तुम्हारी ज़बान से "उफ़" भी नहीं निकलना चाहिए। बल्कि अगर अल्लाह तआला ने बूढ़े वालिदैन की ख़िदमत का मौक़ा दिया है तो उसे ग़नीमत समझ कर उन के इलाज-ओ-मुआलजा में कोशिशें करो। उन को राहत-ओ-आराम पहुँचाने में ज़रा-सी भी सुस्ती और ग़फ़्लत से काम न लो। और उन से ऐसे मुहब्बत भरे अंदाज़ में गुफ़्तगू करो कि उन के दिल की कलियाँ खिल जाएँ और अपने लख़्त-ए-जिगर की इस एहसानशनासी को देख कर उन का दिल मसरूर और आँखें रौशन हो जाएँ और वो बे-साख़्ता तुम्हें अपनी दुआओं से नवाज़ें। और याद रखो दोस्तो! अगर तुम इस मुक़ाम पर पहुँच गए तो यही दुआ तुम्हारे लिए दारैन की सआदतों का बाब खोल देगी।  

माँ बाप की अहमियत हदीस में 

दोस्तों! अब मैं चाहता हूँ कि क़ुरान-ए-मुक़द्दस की आयत-ए-करीमा के बाद आक़ा-ए-दो आलम अलैहिस्सलातु वस्सलाम  के वो अक़्वाल भी पेश कर दूँ जिन में वालिदैन की अज़्मत का चर्चा किया गया है। मुस्लिम शरीफ़ जिल्द-ए-सानी सफ़्हा 312 पर है हज़रत अबू हुरैरा रज़ी अल्लाह अन्हु फ़रमाते हैं:  
جَاءَ رَجُلٌ إِلَى رَسُولِ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ: مَنْ أَحَقُّ النَّاسِ بُحُسْنِ صَحَابَتِي، قَالَ : أُمُّكَ، قَالَ : ثُمَّ مَنْ قَالَ: أُمُّكَ قَالَ: ثُمَّ مَنْ قَالَ: أُمُّكَ، قَالَ : ثُمَّ مَنْ قَالَ: أَبُوكَ  

मां का हक तीन गुना ज़्दाया है  

यानी एक शख़्स नबी करीम अलैहिस्सलातु वस्सलाम की बारगाह में हाज़िर हुआ और दरयाफ़्त किया कि हुज़ूर मेरे हुस्न-ए-सुलूक का सब से ज़्यादा मुस्तहिक़ कौन है? हुज़ूर ने फ़रमाया: "तेरी माँ"। उस ने कहा: "फिर कौन?" फ़रमाया: "तेरी माँ"। उस ने कहा: "फिर कौन?" फ़रमाया: "तेरी माँ"। चौथी मर्तबा उस ने कहा: "फिर कौन?" फ़रमाया: "तेरा बाप"।  
इस हदीस-ए-पाक से मालूम हुआ कि माँ का हक़ बाप से ज़्यादा है और वो हुस्न-ए-सुलूक की ज़्यादा मुस्तहिक़ है। क्योंकि वो लम्बी मुद्दत तक औलाद को पेट में रखती है और फिर जनने की परेशानी के साथ बचपन की देख-रेख भी उस के ज़िम्मे होती है। और यहीं पर बस नहीं बल्कि परवरिश की दुश्वार-गुज़ार मराहिल से उसी को गुज़रना पड़ता है। इस लिए क़ुरान-ओ-हदीस में माँ के मर्तबे को बुलंद फ़रमाया गया है। लेकिन इस का ये मतलब नहीं कि पूरी तवज्जुह सिर्फ़ माँ की जानिब रहे और बाप के हुक़ूक़ से ग़फ़्लत बरतने लगें। बल्कि याद रखें! कि ये वही बाप है जिस ने आप के आराम-ओ-सुकून के लिए दर-दर की ठोकरें खाईं, जो आप की सेहत-ओ-सलामती का ख़्वाहिशमंद रहा, ख़ुद परेशानियाँ झेलता रहा लेकिन आप को अपने से बेहतर खिलाने, पहनाने की फ़िक्र करता रहा। आप की पेशानी पर ग़म की सलवटें देखना उसे ग़वारा न था।  
दोस्तो! वालिद-ए-मोहतरम की अज़्मत के तअल्लुक़ से भी आक़ा अलैहिस्सलातु वस्सलाम के सुनहरे इरशादात मौजूद हैं। 

बाप जन्नत का दरवाज़ा है  

मुलाहिज़ा कीजिए! इब्ने माजा शरीफ़ में है: आक़ा अलैहिस्सलातु वस्सलाम इरशाद फ़रमाते हैं:  
"الْوَالِدُ أَوْسَطُ ابْوَابِ الْجَنَّةِ"  
यानी "बाप जन्नत का बेहतरीन दरवाज़ा है"। लिहाज़ा अगर चाहो तो नाफ़रमानी करके उसे ज़ाएअ कर दो या इताअत और फ़रमाँबरदारी करके उसे महफ़ूज़ कर लो। इसी तरह तिर्मिज़ी शरीफ़ की दूसरी जिल्द सफ़्हा 12 पर है: रसूल-ए-अकरम अलैहिस्सलातु वस्सलाम ये इरशाद फ़रमाते हैं:  
"رِضَا الرَّبِّ فِي رِضَا الْوَالِدِ وَسَخَطَ الرَّبِّ فِي سَخَطِ الْوَالِدِ"
यानी "रब की रज़ा, बाप की रज़ा में है और रब की नाराज़गी, बाप की नाराज़गी में है"।  
दोस्तों! इन अहादीस-ए-मुबारका से मालूम हुआ कि बाप का हक़ भी इंतिहाई अहम है। और बाप की नाराज़गी दुनिया व आख़िरत की रुसवाई का सबब है।  
दोस्तों! आज जब हम मुआशरे पर नज़र डालते हैं तो मालूम होता है कि तक़रीबन हर वालिदैन को औलाद से शिकायत होती है। कोई बूढ़ा बाप अपनी बीमारी में कराह रहा होता है और उम्मीद की निगाहें औलाद पर जमाए होता है और औलाद नशे में मस्त होती है। यूँही कोई माँ घर के कोने में पड़ी हुई अपनी ही औलाद से ख़ैरात के टुकड़े माँग रही होती है और औलाद उसे डाँटती और दूर भगाती नज़र आती है। दोस्तो! गुज़ारिश है कि मुआशरे की इन करबनाकियों से बाहर निकलें, और अपनी जन्नत को पहचानें और वालिदैन की ख़िदमत कर के अपने लिए दुनिया व आख़िरत का सामान करें। मौला तआला हमें दारैन की सआदतों से नवाज़े।   
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