शिर्क की हकीकत
अस्सलामु अलैकुम! दोस्तों इस तहरीर में "शिर्क की हकीकत।" क्या है शिर्क कहते किसे हैं शिर्क क्या है इस पर लिखा गया है मुझे उम्मीद है के आपको इससे शिर्क की हकीकत के बारे में जानने को मिलेगा और आपकी जानकारी में ज़रूर इज़ाफा होगा!
हज़रात! आज दुनिया के मुख्तलिफ़ गोशों से फ़सताई लॉबी के ज़रिये अहल-ए-सुन्नत व जमात के मामूलात पर शिर्क और महज़ शिर्क के फतवे लगाए जा रहे हैं, जबकि मामूलात-ए-अहल-ए-सुन्नत मुकम्मल तौर पर इस्लामी हैं और शर'अ-ए-मुतहर से साबित हैं। ख़्वाह वो नियाज़, फ़ातिहा, सलाम, क़ियाम, मिलाद हों या मज़ारात-ए-बुज़ुर्गां पर हाज़िरी और उनसे इस्तिमदाद हो या फिर अंबिया और औलिया को साहिब-ए-इख़्तियारात व तसर्रुफ़ात और उन्हें ज़िंदा जानने और मानने का मसला हो। बहरहाल सब इस्लामी हैं और क़ुरआन व अहादीस और अक़वाल-ए-सहाबा व ताबेईन से साबित हैं। साथ ही ख़ैर-उल-कुरून से लेकर अब तक इन पर अमल भी जारी है। लेकिन गुज़श्ता चंद सालों से इन अक़ाइद-ए-सहीहा को ग़लत और इनके आमिलीन पर शिर्क के फतवे लगाए जा रहे हैं। और तरफ़ा तो ये है कि अहल-ए-सुन्नत पर बात-बात में शिर्क के फतवे लगाने वाले वो हज़रात हैं जिनका इस्लाम और अहल-ए-इस्लाम से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। मगर वो अपने आप को "मुवहिद" और न जाने क्या-क्या ख़याल करते हैं। बहरहाल मैं चाहता हूं कि शिर्क की हकीकत से पर्दा उठाऊं ताकि असल का पता चल जाए।
शिर्क का मअनी
देखिए! शिर्क का लुगवी मआनी होता है "शरीक करना," "शरीक ठहराना," और शर'ई तौर पर इसका मआनी होता है "अल्लाह तआला की ज़ात या उसकी सिफ़ात के साथ किसी ग़ैरुल्लाह को शरीक मानना।" तो जो शिरकत ज़ात के साथ होगी उसे "शिर्क बिज़्ज़ात" और जो शिरकत सिफ़ात के साथ होगी उसे "शिर्क बिस्सिफ़ात" कहा जाएगा। तो गोया शिर्क की दो क़िस्में हो गईं: शिर्क बिज़्ज़ात और शिर्क बिस्सिफ़ात।
शिर्क बिज़्ज़ात किसे कहते हैं? इसे समझते चलें और इसकी कम अज़ कम दो सूरतें ले लें। पहली ये कि जिस तरह अल्लाह तआला हमेशा से है, वैसे ही किसी मख़लूक़ को तसव्वुर कर लेना कि वो भी हमेशा से है। जिसे आप "क़दीम" कहते हैं, तो ये "शिर्क बिज़्ज़ात" है।
जैसा कि फ़लासिफ़ा ने ज़माने के बारे में कहा कि वह हमेशा से है और हमेशा रहेगा, तो उन्होंने ज़माने को ख़ुदा के साथ, जो कि क़दीम है, शरीक कर दिया और मुशरिक हो गए। और दूसरी सूरत यह है कि जैसे अल्लाह तआला लाइक-ए-इबादत है, वैसे ही मख़लूक़ को लाइक-ए-इबादत तसव्वुर कर लेना। जैसे आतिशपरस्त, बुतपरस्त, कि उन्होंने आग और बुत को ख़ुदा की तरह लाइक-ए-इबादत जाना और काफ़िर व मुशरिक हो गए। तो यह रही शिर्क बिज़्ज़ात की तशरीह व तफ़सीर।
अब आइए! शिर्क बिस्सिफ़ात की तरफ़ चलते हैं और जानते हैं कि शिर्क बिस्सिफ़ात किसे कहते हैं। तो इस सिलसिले में पहली चीज़ तो यह है कि अल्लाह तआला की जितनी भी सिफ़ात हैं और वह जिन ख़ूबियों से मुत्तसिफ़ है, किसी मख़लूक़ में वही सिफ़ात उन तमाम ख़ूबियों के साथ मान लेना, यह शिर्क बिस्सिफ़ात कहलाता है।
याद रखिए! कि अल्लाह तआला की जितनी भी सिफ़ात हैं, वह कम-अज़-कम चार ख़ूबियों से ज़रूर मुत्तसिफ़ होंगी:
नंबर (1) अल्लाह तआला की तमाम सिफ़ात क़दीम हैं, यानी सुनने, जानने, देखने, इल्म व इदराक़ फ़रमाने की जो अल्लाह तआला की सिफ़ात हैं, वह हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगी।
नंबर (2) अल्लाह तआला की तमाम सिफ़ात ज़ाती हैं, उसे किसी ने अता नहीं किया।
नंबर (3) अल्लाह तआला की तमाम सिफ़ात ला-महदूद हैं। वह कहां तक देख सकता है, कहां तक सुन सकता है, यह कोई तसव्वुर नहीं कर सकता।
नंबर (4) उसकी तमाम सिफ़ात ग़ैर-फ़ानी हैं।
अब बात आशकारा हो गई कि अल्लाह तआला की हर सिफ़त इन चार ख़ूबियों से ज़रूर मुत्तसिफ़ होगी। अब अगर कोई मख़लूक़ के अंदर इन चार ख़ूबियों को मन व अन उसी तरह मान लेगा, तो वह मुशरिक हो जाएगा। और कभी-कभी इन में से एक भी उसी तरह मान लेगा, तो काफ़िर हो जाएगा। मिसाल के तौर पर किसी वली के बारे में यह मान लिया जाए कि इस वली का इल्म क़दीम है, हमेशा से है, तो वह मुशरिक हो जाएगा।
अब ज़रा मख़लूक़ की सिफ़ात की तरफ़ नज़र कीजिए। तो जान लीजिए कि मख़लूक़ की सिफ़ात भी चार चीज़ों से मुत्तसिफ़ होती हैं:
नंबर (1) मख़लूक़ की तमाम सिफ़ात हादिस, यानी ग़ैर-क़दीम होती हैं।
नंबर (2) मख़लूक़ की जितनी भी सिफ़ात हैं, वह सबकी सब अताई हैं। अगर कोई किसी मख़लूक़ की किसी सिफ़त के बारे में यह कहे कि उसकी यह सिफ़त ख़ुद-ब-ख़ुद है, अल्लाह तआला ने उसे नहीं दी, तो वह मुशरिक हो जाएगा।
नंबर (3) मख़लूक़ की तमाम सिफ़ात महदूद हैं। दोस्तों! यहां यह जानते चलें कि एक है किसी मख़लूक़ की सिफ़त को ला-महदूद मानना, और एक है हद को न जान पाना। दोनों में फ़र्क़ है। लिहाज़ा किसी मख़लूक़ की सिफ़त को ला-महदूद मानना यह ममनूअ है, लेकिन यह अकीदा रखना कि महदूद तो है, अलबत्ता हम इसकी हद नहीं जानते, जैसे हमारे नबी का इल्म, ऐसा अकीदा रखना दुरुस्त है।
नंबर (4) मख़लूक़ की तमाम सिफ़ात फ़ानी हैं। यह और बात है कि फ़ना वक़ूअ पज़ीर हो जाए, यह ज़रूरी नहीं। जैसे हमारे नबी की सिफ़ात कि उनके लिए फ़ना नहीं, क्योंकि क़ुरआन का इरशाद है:
"व-ल-ल-आख़िरतु ख़ैरुल्लका मिनल ऊला" (पारा: 30)
महबूब! आपकी हर आने वाली घड़ी पिछली घड़ी से बेहतर है।
दोस्तों! अब आप पर यह बात वाज़ेह हो गई कि अल्लाह तआला की तमाम सिफ़ात क़दीम हैं, ज़ाती हैं, ला-महदूद हैं, और ग़ैर-फ़ानी हैं। और मख़लूक़ की तमाम सिफ़ात ग़ैर-क़दीम हैं, अताई हैं, महदूद हैं, और फ़ानी हैं।
लिहाज़ा यह फ़र्क़ ज़हन में रखना ज़रूरी है, वरना कायनात में कोई भी शख़्स शिर्क से बच नहीं सकता। मिसाल के तौर पर, आप सबने जो लिबास पहन रखा है, उसका मालिक कौन है? मैं पूछूं, आप जिस सवारी पर सवार होकर आए, उसका मालिक कौन है? आपका अपना घर जिसमें आप रहते हैं, उसका मालिक कौन है? तो आप सबका यही जवाब होगा कि इसके मालिक हम हैं। तो मैं कहूंगा कि आप हज़रात के कहने के मुताबिक़ तो इसे शिर्क होना चाहिए। तो जवाबاً आप कहेंगे: "मौलाना साहब! हमारी अकल भी सलामत है और दिमाग़ भी ख़राब नहीं हुआ है। इसमें कौन सी शिर्क की बात है?"
तो मैं क़ुरआन मजीद की आयत करीमा पेश करूंगा:
"लिल्लाहि मा फ़िस्समावाति व मा फ़िल-अर्द" (पारा: 3)
तर्जुमा:अल्लाह-ही-का है जो-कुछ आसमानों-में है और जो-कुछ-ज़मीनों में है।"
यानी यह गाड़ी, यह सवारी, यह कपड़ा, यह दुकान, यह मकान, यह ज़मीन, यह जाइदाद, सबका मालिक अल्लाह तआला है। और आप हज़रात कह रहे हैं कि इसके मालिक हम हैं। तो आप-लोग यह ही जवाब देंगे के "जनाब! हक़ीक़ी मालिक तो अल्लाह तआला ही है, हम उसकी अता से मालिक हुए हैं। उसकी मिल्कियत क़दीम है, हमारी मिल्कियत ग़ैर-क़दीम है। उसकी ज़ाती है, हमारी अताई है। उसकी ला-महदूद है और हमारी महदूद है। उसकी ग़ैर-फ़ानी है और हमारी फ़ानी है। लिहाज़ा शिर्क का शाएबा तक नहीं हो सकता है।"
दोस्तों! इस वाज़ेह फ़र्क़ के बाद अब कौन शख़्स है जो मामूलात-ए-अहल-ए-सुन्नत पर शिर्क के फ़तवे लगाए? हां! बात-बात में "शिर्क-शिर्क" की रट वही लगा सकता है, जिसे इल्म व अकल से कोई वास्ता न हो, और जिसे दीन व मज़हब से कोई सरोकार ही न हो।
एक टिप्पणी भेजें