उसवा-ए-हस्ना: इंसानी ज़िंदगी का मुकम्मल नुस्ख़ा
इस्लाम की तालीमात इंसानियत के हर पहलू पर रौशनी डालती हैं और हमारे प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम की ज़िंदगी को अल्लाह ने तमाम इंसानों के लिए बेहतरीन नमूना बनाया है। हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम का उसवा-ए-हस्ना (तरीक़ा) में हमारे लिए दोनों जहां की कामयाबी व कमरानी है। आज के दौर में, जब दुनियावी ख़ुशियों और सुकून की तलाश में लोग ग़लत रास्तों पर चलने लगे हैं, तो ये बेहद ज़रूरी हो जाता है कि हम अपने रहबर-ए-आज़म अलैहिस्सालतु-वस्सलाम के उसवा-ए-हस्ना को अपनाएं उस पर अमल करें। यही हमारा असल इलाज है, जो हमें न सिर्फ़ इस दुनिया में कामयाबी देगा, बल्कि आख़िरत में भी भलाई व कामयाबी नसीब होगी।
उसवा-ए-हस्ना और हमारी ज़िम्मेदारी
उसवा ए हसना का मफहूम और अहमियत
लफ़्ज़ उस्वा'' का माख़ज़ "उसवा" और "उसा" है। इलाज और ज़ख़्म ठीक करने को अरब "उसवा" और "उसा" कहते हैं और ज़ख़्म ख़ुर्दा दिलों को तसल्ली-तशफ़्फ़ी के मानी में भी ये अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करते हैं। हज़ूर अलैहिस्सलाम का 'उसवा-ए-हस्ना' भी ज़ख़्मी इंसानियत के नासूरों का सही इलाज है और ज़माना भर के ज़ख़्मी दिलों की तसल्ली व तशफ़्फ़ी के लिए शाफ़ी व काफ़ी सामान है।
उसवा ए हसन ज़ख्म खुर्दा दिलों का इलाज
मेरे प्यारे भाइयों! अगर हक़ीक़ी शिफ़ायाबी मक़सूद है तो उसवा-ए-हस्ना को अपनाते हुए यही असल इलाज करो। वरना याद रखो कि जो मरीज़ असल छोड़ कर जाली और नक़ली इलाजों का सहारा लेते हैं, वो तंदरुस्ती के बजाय दिन-ब-दिन मौत के करीबतर होते जाते हैं।
अल्लाह रब्बुल-आलमीन अरहमुर-राहेरीन है। उसका ख़ुसूसी फ़ज़्ल व करम है कि उसने हमारी दुनियवी व उख़रवी कामयाबियों और दारेन के दुखियों की शिफ़ायाबियों के लिए हमारे ऊपर लाज़िम फ़रमाया कि हम उसवा-ए-हस्ना को अपनाएं। हमारी आदत हज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की आदत-ए-मुबारका का सही नक़्शा हो और हमारी सीरत हज़ूर की आदत-ए-मुबारका का ऐन चरबा हो।
मुहब्बत ए रसूल का अमली इज़हार
हज़ूर-ए-पुर्नूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम ने अल्लाह तआला के हुक़ूक़ जिस ज़ौक़ व शौक़ से अदा फ़रमाए, हम भी उसी तरह पूरे करें। इंसान तो इंसान, हज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम ने हैवानों और बेजान चीज़ों के हुक़ूक़ भी अदा फ़रमाए। क्या ये चमकती हुई तारीखी हक़ीक़त नहीं कि खजूर की वो ख़ुश्क लकड़ी जो मस्जिद-ए-नबवी का सुतून थी, जिसके पास खड़े होकर हज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम ख़ुत्बा दिया करते थे, जब मिंबर-ए-शरीफ़ तैयार होकर आ गया और हज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम उस पर जलवा-गर हुए, तो वो ख़ुश्क लकड़ी हज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम के इश्क़ व मोहब्बत से इतना सा फ़िराक़ भी सह न सकी और निहायत सोज़ व गुदाज़ से अक़्लमंदों की तरह गिरया-ए-आशिक़ाना शुरू कर दिया तो इस शहनशाह-ए-कौन व मकान ने उस ख़ुश्क लकड़ी का थोड़ा सा हक़-ए-मुसाहिब भी नज़रअंदाज़ न फ़रमाया। बल्के कमाल-ए-रहमत से मिंबर से उतरकर उस लकड़ी को गले लगा लिया और तसल्ली व तशफ़्फ़ी दी। यहाँ तक कि वो सिसकियाँ लेती हुई रोने से यूँ चुप हुई जैसे रोते बच्चे को माँ प्यार से चुप कराए तो वो सिसकियाँ भरते हुए चुप होता है।
हुकूक की अदाएगी का दरस
हज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम की सीरत-ए-मुबारका का ये भी चमकता हुआ बाब है कि जब सफ़र से वापस आते तो मदीना मुनव्वरा के दरो-दीवार देखकर यूँ हक़-ए-मोहब्बत अदा फ़रमाते कि अपनी सवारी तेज़ कर देते। ओहद शरीफ़ पहाड़ देखकर फ़रमाते कि "ये हमसे मोहब्बत करता है और हम इससे।"
"सुब्हानअल्लाह!" हम ऐसे रहीम व करीम रसूल-ए-बरहक़ के उम्मती हैं। क्या हमारा फर्ज़ नहीं कि हम भी तमाम हक़वालों के हुक़ूक़ अदा करें? हज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम ने तो छोटे-छोटे खुद अता फ़रमाए हुक़ूक़ भी नहीं भुलाए। मगर हम हैं कि बड़े-बड़े हुक़ूक़ भी हज़्म कर जाते हैं। अल्लाह तआला चश्म-ए-बेना अता फ़रमाए।
उसवा ए हसना की रौशनी में ज़िन्दगी गगुज़ारने की ज़रुरत
अख़िर में यही कहुँगा कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु-अलैहि-वसल्लम का "उसवा-ए-हस्ना" हमारी ज़िंदगी के हर मसले का सबसे बेहतरीन हल है। चाहे इंसानों के हुक़ूक हों या जानवरों और बेजान चीज़ों के, आपने हर मख़लूक के साथ इंसाफ़ और उनके हुक़ूक के अदा करने की तालीम दी।
अगर हम हुज़ूर अलैहिस्सालतु-वस्सलाम के"उसवा-ए-हस्ना” पर अमल करने लगें, तो हमारी ज़िंदगी में सुकून और बरकत आ सकती है। आज के फितनों भरे दौर में ज़रूरत इस बात की है कि हम नबी-ए-करीम अलैहिस्सालतु-वस्सलाम के उसवा-ए-हस्ना को अपना कर अपने अंदर और समाज में वो सुधार लाएँ, जो अल्लाह और उसके रसूल अलैहिस्सालतु-वस्सलाम को राज़ी कर सकें।
अल्लाह हम सबको उसवा-ए-रसूल अलैहिस्सालतु-वस्सलाम पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और दुनिया-आख़िरत में कामयाब करे। आमीन।
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